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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि० १२५-१३२
१२५ (सू० ५५८)
प्रथम भंग के लिए वृत्तिकार ने जिनकल्पिक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। जिनकल्पी मुनि आत्मानुकंपी होते हैं। वे अपनी ही सधना में रत रहते हैं, दूसरों के हित का चिन्तन नहीं करते।
दूसरे भंग के लिए वृत्तिकार ने तीर्थकर का उदाहरण प्रस्तुत किया है। तीर्थकर परानुकंपी होते हैं। वे कृतकार्य होने के कारण पर-हित की साधना में ही रत रहते हैं।
तीसरे भंग के लिए वृत्तिकार ने स्थविरकल्पिक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। वे उभयानुकंपी होते हैं। वे अपनी और दूसरों दोनों की हित-चिन्ता करते हैं।
चतुर्थ भंग के लिए वृत्तिकार ने कालशौकारिक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। वह अत्यन्त क्रूर था। उसे न अपने हित की चिन्ता थी और न दसरों के हित की।
इसकी अन्य नयों से भी व्याख्या की जा सकती है, जैसे ---
स्वार्थ साधक, परार्थ के लिए समर्पित, स्वार्थ और परार्थ की संतुलित साधना करने वाला, आलसी या अकर्मण्यइन्हें क्रमश: चारों भंगों के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
१२६-१३० (सू० ५६६-५७०)
देखें-उत्तरज्झयणाणि ३६।२५६ का टिप्पण। आसुर आदि अपध्वंस गीता की आसुरी संपदा से तुलनीय है
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च, क्रोध: पारुष्यमेव च। अज्ञानं चाभिजातस्य, पार्थ सम्पदमासुरीम् ॥' काममाश्रित्य दुष्पूर, दम्भमानमदान्विताः । मोहाद्गृहीत्वाऽसद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥ चिन्तामपरिमेयां च, प्रलयान्तामुपाश्रिताः । कामोपभोगपरमा, एतावदिति निश्चिताः ॥' आशापाशशतैर्बद्धाः, कामक्रोधपरायणाः । ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ॥
१३१ संज्ञाएं (सू० ५७८)
देखें-१०।१०५ का टिप्पण।
१३२ (सू० ५६७) :
प्रस्तुत सूत्र में उपसर्गचतुष्टय का प्रतिपादन किया गया है। उपसर्ग का अर्थ बाधा या कष्ट है। कर्ता के भेद से यह चार प्रकार का होता है
१. दिव्यउपसर्ग, २. मानुषउपसर्ग, ३. तिर्यग्योनिजउपसर्ग, ४. आत्मसंचेतनीय उपसर्ग।
१. श्रीमद्भगवद्गीता, १६।४ । २. वही, १६।१०।
३. वही, १६।११। ४. वही, १६।१२।
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