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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि० १३३
मूलाचार में आत्मसंचेतनीय के स्थान पर चेतनिक का उल्लेख मिलता है।' इस उपसर्गचतुष्टय के सांख्य-सम्मत दुःखत्रय से तुलना की जा सकती है। सांख्यदर्शन के अनुसार दुःख तीन प्रकार का होता है
१. आध्यात्मिक, २. आधिभौतिक, ३. आधिदैविक ।
इनमें से आध्यात्मिक दुःख शारीर ( शरीर में जात ) और मानस ( मन में जात) भेद से दो प्रकार का है। वात (वायु), पित्त और कफ की विषमता से उत्पन्न दुःख को शारीर तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या, विषाद से उत्पन्न एवं अभीष्ट विषय की अप्राप्ति से उत्पन्न दुःख को मानस कहते हैं।
ये सभी दुःख आभ्यन्तर उपायों (शरीरान्तर्गत पदार्थ) से उत्पन्न होने के कारण 'आध्यात्मिक' कहलाते हैं ।
बाह्य (शरीरादिबहिर्भूत) उपायों से साध्य दुःख दो प्रकार का होता है—
१. आधिभौतिक, २. आधिदैविक ।
उनमें से मनुष्य, पशु, पक्षी, सरीसृप ( सर्पादि विसर्पणशील) तथा स्थावर ( स्थितिशील वृक्षादि) से उत्पन्न होने वाला दु:ख आधिभौतिक है और यक्ष, राक्षस, विनायक (विघ्नकारी देवजातिविशेष ) ग्रह आदि के आवेश ( कुप्रभाव ) से होने वाला दुःख आधिदैविक कहलाता है।
दिव्यउपसर्ग - आधिदैविक
मानुष और तिर्यग्योनिज - आधिभौतिक आत्मसंचेतनीय - आध्यात्मिक
१३३ (सू० ६०२ ) :
जिस व्यक्ति के मन में आसक्ति अल्प होती है, उसके जो पुण्यकर्म का बंध होता है, वह उसे अशुभ के चक्र में फंसाने वाला नहीं होता, उसमें मूढता उत्पन्न करने वाला नहीं होता। इस प्रसंग में भरत चक्रवर्ती का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है।
जिस व्यक्ति के मन में आसक्ति प्रबल होती हैं, उसके जो पुण्यकर्म का बंध होता है, वह उसे अशुभ की ओर ले जाने वाला, उसमें मूढता उत्पन्न करने वाला होता है। इस प्रसंग में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है। इसी प्रसंग को लक्ष्य में रखकर योगीन्दु ने लिखा था
पुणेण होइ विवो, विहवेण मओ मएण मइमोहो । मइमोहेण य पावं, ता पुष्णं अम्ह मा होउ ।।
पुण्य से वैभव होता है, वैभव से मद, मद से मतिमोह, मतिमोह से पाप पाप मुझे इष्ट नहीं है, इसलिए पुण्य भी मुझे इष्ट नहीं है।
शुभकर्म तीव्र मोह से अर्जित नहीं होते, वे शुभ कर्म के निमित्त बन जाते हैं। इस प्रसंग में उदाहरण के लिए व्यक्ति प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जो दुःख से संतप्त होकर शुभ की ओर प्रवृत्त होते हैं। इसी आशय को लक्ष्य कर कपिल मुनि ने गाया था' -
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अधुवे असासयंमि, संसारंमि दुक्खपउराएं।
कि नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दोग्गइं न गच्छेज्जा ॥
अध्रुव, अशाश्वत और दुःखबहुल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं। इसी भावना के आधार पर ईश्वरकृष्ण ने लिखा था *--
१. मूलाचार, ७३५८ :
उवसग्गा, देव भाणुस तिरिक्ख चेदणिया । २. सांख्यकारिका, तत्त्वकौमुदी, पृष्ठ ३-४ :
३. उत्तराध्ययन, ८१
४. सांख्यकारिका, श्लोक १ ।
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