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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४ : टि० १३४
दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ।
दष्टे साऽपार्था चेन्नैकान्तात्यन्ततोऽभावात् ॥ आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक रूप विविध दुःख के अभिघात से उसको विनष्ट करने वाले हेतु (उपाय) के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न होती है। यदि यह कहा जाए कि दु:ख विनाशकारी दष्ट (लौकिक) उपाय के विद्यमान होने के कारण यह (शास्त्रीय उपाय सम्बन्धी जिज्ञासा) व्यर्थ है, तो उत्तर यह है कि ऐसी बात नहीं है, क्योंकि लौकिक उपाय से दुःखत्रय का एकांत (अवश्यंभावी) और अत्यन्त (पुनः उत्पत्तिहीन) अभाव नहीं होता।
जिस व्यक्ति के तीन आसक्तिपूर्वक अशुभकर्म का बंध होता है, वह उसमें मूढता उत्पन्न करता रहता है।
१३४ (सू० ६०३) :
कर्मवाद का सामान्य नियम है—सूचीर्ण कर्म का शुभ फल होता है और दृश्चीर्ण कर्म का अशुभ फल होता है।
इस सिद्धान्त के आधार पर प्रथम और चतुर्थ भंग की संरचना हई है। द्वितीय और तृतीय भंग इस सामान्य नियम के अपवाद हैं। इन भंगों के द्वारा कर्म के संक्रमण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। यहां जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही फल भुगतना पड़ता है ---इस सिद्धांत का संक्रमण-सिद्धान्त में अतिक्रमण होता है।
संक्रमण का अर्थ है एक कर्म-प्रकृति का दूसरे कर्म में परिवर्तन। यह मूल प्रकृतियों में नहीं होता, केवल कर्म की उत्तर प्रकृतियों में होता है । वेदनीय कर्म की दो उत्तर प्रकृतियां हैं—सात (शुभ) वेदनीय और असात (अशुभ) वेदनीय । किसी व्यक्ति ने सातवेदनीय कर्म का बंध किया। वह किसी समय प्रबल अशुभ कर्म का बंध करता है तब अशुभ कर्म पुद्गलों की प्रचुरता पूर्वाजित शुभ कर्म-पुद्गलों को अशुभ के रूप में परिवर्तित कर देती है। इस व्याख्या के अनुसार दूसरा भंग घटित होता है—बंधनकाल का शुभ कर्म संक्रमण के द्वारा विपाककाल में अशुभ हो जाता है।
___ इसी प्रकार बंधनकाल का अशुभकर्म शुभकर्म पुद्गलों की प्रचुरता से संक्रान्त होकर विपाककाल में शुभ हो जाता है।
बौद्धसाहित्य में निर्ग्रन्थों के मुंह से संक्रमण-विरोधी तथा परिवर्तन-विरोधी बातें कहलाई गई हैं, जैसे
और फिर भिक्षुओ ! मैं उन निगंठों को ऐसा कहता हूं तो क्या मानते हो आवुसो निगंठो ! जो यह इसी जन्म में वेदनीय (भोगा जानेवाला) कर्म है, वह उपक्रम से या प्रधान से संपराय (दूसरे जन्म में) वेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस!
और जो यह जन्मान्तर (संपराय) वेदनीय कर्म है, वह-उपक्रम से या प्रधान से इस जन्म में वेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आकुस!
तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह सुख-वेदनीय (सुख भोग करने वाला) कर्म है, क्या वह उपक्रम से =या प्रधान से दुःखवेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस !
तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो! जो यह दुःख-वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से या प्रधान से सुख-वेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस!
तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह परिपक्व अवस्था (= बुढापा) वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम सेया प्रधान से अपरिपक्व-वेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस !
तो क्या मानते हो आवसो ! निगंठो ! जो यह अपरिपक्व (-शैशव, जवानी) वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से या प्रधान से परिपक्व-वेदनीय किया जा सकता है ?
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