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ठाणं (स्थान)
स्थान ४ : टि० १३५-१३७
नहीं, आवुस !
तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह बहु-वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से = या प्रधान से अल्प वेदनीय किया जा सकता है?
नहीं, आवुस !
तो क्या मानते हो आवसो ! निगंठो ! जो यह अल्प वेदनीय ( = भोगानेवाला) कर्म है, क्या वह उपक्रम से या प्रधान से बहुवेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस!
तो क्या मानते हो आवसो ! निगंठो! जो यह अवेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से = या प्रधान से वेदनीय किया जा सकता है?
नहीं, आवुस !
इस प्रकार आवसो! निगंठो ! जो यह वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से =या प्रधान से अवेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवस!
इस प्रकार आवसो ! निगंठो ! जो यह इसी जन्म में वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से या प्रधान से पर जन्म में वेदनीय किया जा सकता है ?
नहीं, आवुस !
तो क्या मानते हो आवसो! निगंठो! जो यह पर जन्म में वेदनीय कर्म है, वह उपक्रम से = या प्रधान से इस जन्म में वेदनीय किया जा सकता है ? ऐसा होने पर आयुष्मान् निगंठों का उपक्रम निष्फल हो जाता है, प्रधान निष्फल हो जाता है।
उक्त संवाद की काल्पनिकता प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित संक्रमण से स्पष्ट हो जाती है। यहां ४।२६०-२६६ का टिप्पण द्रष्टव्य है।
१३५ (सू० ६०६) :
इसकी विस्तृत जानकारी के लिए देखें-नंदी, सुत्र ३८ ।
१३६ (सू० ६२५) :
सूत्र ६२३ में शरीर को उत्पत्ति के हेतु बतलाए गए हैं और प्रस्तुत सूत्र में उसकी निष्पत्ति (निर्वृत्ति) के हेतु निर्दिष्ट हैं। उत्पत्ति और निष्पत्ति एक ही क्रिया के दो विभाग हैं। उत्पत्ति का अर्थ है प्रारम्भ और निष्पत्ति का अर्थ है प्रारब्ध की पूर्णता।
१३७ (सू० ६३१) : सरागसंयम-व्यक्ति-भेद से संयम दो प्रकार का होता है--
सरागसंयम---कषाययुक्त मुनि का संयम।
वीतरागसंयम-उपशान्त या क्षीण कषाय वाले मुनि का संयम । वीतरागसंयमी के आयुष्य का बंध नहीं होता। इसीलिए यहां सरागसंयम (सकषायचारित्र) को देवायु के बंध का कारण बतलाया गया है।
१. मज्झिमनिकाय, देवदहसुत्त, ३।१।१ ।
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