________________
ठाणं (स्थान)
५३६
स्थान ४ : टि० १३८
संयमासंयम - आंशिक रूप से व्रत स्वीकार करने वाले गृहस्थ के जीवन में संयम और असंयम दोनों होते हैं, इसलिए उसका संयम संयमासंयम कहलाता है ।
बालतपः कर्म - मिथ्यादृष्टि का तपश्चरण ।
अकामनिर्जरा --- निर्जरा की अभिलाषा के बिना कर्मनिर्जरण का हेतुभूत आचरण ।
१३८ (सू० ६३२) :
१. तत - इसका अर्थ है --तंत्रीयुक्त वाद्य ।
भरत ने ततवाद्यों में विपंची एवं चित्रा को प्रमुख तथा कच्छपी एवं घोषका को उनका अंगभूत माना है।
चित्र वीणा सात तन्त्रियों से निबद्ध होती थी और उन तन्त्रियों का वादन अंगुलियों से किया जाता था । विपंची में नौ तत्रियां होती थीं, जिनका वादन 'कोण' ( वीणावादन का दण्ड ) के द्वारा किया जाता था।
भरत ने कच्छपी तथा घोषका को स्वरूप के विषय में कुछ नहीं कहा है। संगीत रत्नाकर के अनुसार घोषका एकतन्त्री वाली वीणा है । कच्छपी सात तन्त्रियों से कम वाली वीणा होनी चाहिए।
आचारचूला तथा निशीथ में वीणा, विपंची, बद्धीसग, तुणय, पवण, तुंबवीणिया, ढंकुण और झोड़य-ये वाद्य तत के अन्तर्गत गिनाए हैं।
संगीत दामोदर में तत के २६ प्रकार गिनाए हैं— अलावणी, ब्रह्मवीणा, किन्नरी, लघुकिन्नरी, विपञ्ची, वल्लकी, ज्येष्ठा, चित्रा, घोषवली, जपा, हस्तिका, कुनजिका, कूर्मी, सारंगी, पटिवादिनी, विशवी, शतचन्द्री, नकुलोष्ठी, दसवी ऊदंबरी, पिनाकी, निःशंक, शुष्फल, गदावारणहस्त, रुद्र, स्वरमणमल, कपिलास, मधुस्यंदी और घोपा । '
२. वितत ---- चर्म से आनद्ध वाद्यों को वितत कहा जाता है। गीत और वाद्य के साथ ताल एवं लय के प्रदर्शनार्थ इन चर्मावनद्ध वाद्यों का प्रयोग किया जाता था। इनमें मृदंग, पवण (तंत्रीयुक्त अवनद्ध वाद्य), दर्दुर ( कलशाकार चर्म से मढ़ा वाद्य), मेरी, डिंडिम, मृदंग आदि मुख्य हैं। ये वाद्य कोमल भावनाओं का उद्दीपन करने के साथ-साथ वीरोचित उत्साह बढ़ाने में भी कार्यकर होते हैं। अतः इनका उपयोग धार्मिक समारम्भों तथा युद्धों में भी रहा है।
भरत के चर्मावनद्ध वाद्यों में मृदंग तथा दर्दुर प्रधान है तथा मल्लकी और पटह गौण ।
आयारचूला में मृदंग, नन्दीमृदंग और झल्लरी को तथा निशीथ' में मृदंग, नन्दी, झल्लरी, डमरूक, मड्डुय, सय, प्रदेश, गोलुकी आदि वाद्यों को इसके अन्तर्गत गिनाया है ।
मुरज, पट, ढक्का, विश्वक, दर्पवाद्य, घण, पणव, सरुहा, लाव, जाहव, तिवली, करट, कमठ, भेरी, कुडुक्का, हुडुक्का, झनसमुरली, झल्ली, ढुक्कली, दौंडी, शान, डमरू, ढमुकी, मड्डू, कुंडली, स्तुंग, दुंदुभी, अंग, मर्छल, अणीकस्थ ---- ये वाद्य भी वितत के अन्तर्गत माने जाते हैं ।"
३. धन --- कांस्य आदि धातुओं से निर्मित वाद्य घन कहलाते हैं । करताल, कांस्यवन, नयघटा, शुक्तिका, कण्ठिका, पटवाद्य, पट्टाघोष, घर्घर, झंझताल, मंजीर, कर्तरी, उष्कूक आदि इसके कई प्रकार हैं 1
१. भरतनाटय ३३।१५ :
विपंची चैत्र चित्रा च दारवीष्वंगसंज्ञिते । कच्छपीघोषकादीनि प्रत्यंगानि तथैव च ।।
२. वही, २९।११४ :
Jain Education International
सप्ततंत्री भवेत् चित्रा विपंची नवतंत्रिका | विपंची कोणवाद्या स्याच्चिता चांगुलिवादना ॥
३. संगीतरत्नाकर, वाद्याध्याय, पृष्ठ २४८ : घोषकश्च तंत्रिका |
४. अंगसुत्ताणि, भाग १, पृष्ठ २०६, आयारचूला ११।२ । ५. निसीहज्झयणं १७/१३८ ।
६. प्राचीन भारत के वाद्ययंत्र - कल्याण (हिन्दु संस्कृति अंक ) पृष्ठ ७२१-७२२ से उद्धृत ।
७. अंगसुत्ताणि, भाग १, पृष्ठ २०६, आयारचूला ११।१। निसीहज्झयण १७ १३७ ॥
८.
१. प्राचीन भारत के वाद्ययंत्र - कल्याण ( हिन्दु संस्कृति अंक ) पृष्ठ ७२१-७२२ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org