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________________ ठाणं (स्थान) ५४० स्थान ४ : टि० १३६-१४० आयारचला में ताल शब्दों के अन्तर्गत ताल, कंसताल, लत्तिय, गोहिय और किरिकिरिया को गिनाया है। निशीथ में धन शब्द के अन्तर्गत ताल, कंसताल, लत्तिय, गोहिय, मकरिय, कच्छमी, महति, सणालिया और वालियाये वाद्य उल्लिखित हुए हैं। ४. शूषिर---फंक से बजाए जाने वाले वाद्य । भरत मुनि ने इसके अन्तर्गत वंश को अंगभूत और शंख तथा डिक्किनी आदि वाद्यों को प्रत्यंग माना है। यह माना जाता था कि वंशवादक को गीत सम्बन्धी सभी गुणों से युक्त तथा बलसंपन्न और दृढानिल होना चाहिए।' जिसमें प्राणशक्ति की न्यूनता होती है वह शुषिर वाद्यों को बजाने में सफल नहीं हो सकता। भरत के नाट्यशास्त्र के तीसवें अध्याय में इनके वादन का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। वंशी प्रमुख वाद्य था और वह वेणुदण्ड से बनायी जाती थी। १३६ (सू० ६३३) : १. अंचित-नाट्यशास्त्र में १०८ करण माने जाते हैं। करण का अर्थ है-अंग तथा प्रत्यंग की क्रियाओं को एक साथ करना। अंचित तेवीसवां करण है। इस अभिनय-भंखीया में पादों को स्वस्तिक में रखा जाता है तथा दक्षिण हस्त को कटिहस्त [नृत्तहस्त की एक मुद्रा ] में और वामहस्त को व्यावृत्त तथा परिवृत्त कर नासिका के पास अंचित करने से यह मुद्रा बनती है। सिर पर से सम्बन्धित तेरह अभियानों में यह आठवां है। कोई चिन्तातुर मनुष्य हाथ पर ठोड़ी टिकाकर सिर को नीचा रखे, उस मुद्रा को 'अंचित' माना जाता है। राजप्रश्नीय में इसे २५वां नाट्यभेद माना है। २. रिभित--इसके विषय में जानकारी प्राप्त नहीं है। ३. आरभट-माया, इन्द्रजाल, संग्राम, क्रोध, उद्भ्रान्त आदि चेष्टाओं से युक्त तथा वध, बन्धन आदि से उद्धत नाटक को आरभटी कहा जाता था। इसके चार प्रकार हैं। राजप्रश्नीय सूत्र में आरभट को नाट्य-भेद का अठारहवां प्रकार माना है।' ४. भसोल-राजप्रश्नीय सूत्र में भसोल' को नाट्यभेद का उनतीसवां प्रकार माना है ।' स्थानांगवृत्तिकार ने परम्परागत जानकारी के अभाव में इनका कोई विवरण नहीं दिया है। १४० (सू० ६३४) : भरत नाट्यशास्त्र [३११२८८-४१४ | में सप्तरूप के नाम से प्रख्यात प्राचीन गीतों का विस्तृत वर्णन है। इन गीतों के नाम ये हैं—मंद्रक, अपरान्तक, प्रकरी, ओवेणक, उल्लोप्यक, रोविन्दक और उत्तर । प्रस्तुत सूत्रगत चार प्रकार के गेयों में से दो का--रोविन्दक और मंद्रक-का भरत नाट्योक्त रोविन्दक और मंद्रक-से नाम साम्य है। १. अंगसुत्ताणि, भाग १, पृष्ठ २०६, आयारचूला ११।३ । २. निसीहज्झयणं १७११३६ । ३. भरतनाटय शास्त्र ३३।१७ : अंगलक्षणसंयुक्तो, विज्ञेयो वंश एवं हि । शंखस्तु डिक्किनी चैव, प्रत्यंगे परिकीर्तिते ।। ४. वही, ३३१४६४। ५. भारतीय संगीत का इतिहास, पृष्ठ ४२५ । ६. आप्टे डिक्शनरी में आरभट शब्द के अन्तर्गत उद्धृत मायेन्द्रजालसंग्रामक्रोधोद्धान्तादिचेष्टितः । संयुक्ता वधबन्धाद्यैरुद्धृतारभटी मता ॥ ७. साहित्यदर्पण ४२०॥ ८. राजप्रश्नीय। ६. राजप्रश्नीय सू० १०६। १०. स्थानांगवृत्ति, पत्न २७२ : नाट्यगेयाभिनयसूत्राणि सम्प्रदायाभावान्न विवृतानि । ११. भरतनाट्यशास्त्र ३११२८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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