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________________ ठाणं (स्थान) आलोयणा-पदं ७०. दस आलोयणादोसा पण्णत्ता, तं जहा - १. आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता, दि बायरं च सुमं वा । सद्दा उलगं, बहुजण अव्वत्त तस्सेवी ॥ தூர் ७१. दसह ठाणेहिं संपणे अणगारे अरिहति अत्तदोस मालोएत्तए, तं जहा - जाइसंपणे, कुलसंपणे, • विनयसंपणे, णाणसं पण्णे, दंसण संपणे, चरितसंपणे, खंते, अच्छा। दंते, अमायी, Jain Education International आलोचना-पदम् दश आलोचना दोषाः प्रज्ञप्ताः, १६ तद्यथा— १. आकम्प्य अनुमन्य, यद् दृष्टं बादरं च सूक्ष्मं वा । छन्नं शब्दाकुलकं, बहुजनं अव्यक्तं तत्सेवी ॥ दशभिः स्थानैः संपन्नः अनगारः अर्हति आत्मदोषं आलोचयितुम्, तद्यथा जातिसम्पन्नः, विनयसम्पन्नः, दर्शनसम्पन्नः, क्षान्तः, अपश्चात्तापी । दान्तः, कुलसम्पन्नः, ज्ञानसम्पन्नः चरित्र सम्पन्नः, अमायी, For Private & Personal Use Only स्थान १० : सूत्र ७०-७१ आलोचना-पद ७०. आलोचना के दस दोष हैं" १. आकम्प्य सेवा आदि के द्वारा आलो चना देने वाले की आराधना कर आलो चना करना । २. अनुमान्य — मैं दुर्बल हूं, मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देना - इस प्रकार अनुनय कर आलोचना करना । ३. यद्दृष्ट - आचार्य आदि के द्वारा जो दोष देखा गया है - उसी की आलोचना करना । ४. बादर - केवल बड़े दोषों की आलोचना करना । ५. सूक्ष्म - केवल छोटे दोषों की आलोचना करना । ६. छन्नआचार्य सुन पाए वैसे आलोचना करना । ७. शब्दाकुल- जोर-जोर से बोलकर दूसरे अगीतार्थं साधु सुने वैसे आलोचना करना । ८. बहुजन - एक के पास आलोचना कर फिर उसी दोष की दूसरे के पास आलोचना करना । ९. अव्यक्त — अगीतार्थ के पास दोषों की आलोचना करना । १०. तत्सेवी - आलोचना देने वाले जिन दोषों का स्वयं सेवन करते हैं, उनके पास उन दोषों की आलोचना करना । ७१. दस स्थानों से सम्पन्न अनगार अपने दोषों की आलोचना करने के लिए योग्य होता है १. जातिसम्पन्न, ३. विनयसम्पन्न, ५. दर्शनसम्पन्न, ७. क्षांत, ८. दांत, १०. अपश्चात्तापी । २. कुल सम्पन्न, ४. ज्ञानसम्पन्न, ६. चारित्र सम्पन्न, ६. अमायावी, www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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