SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 958
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) ७२. दसह ठाणेहिं संपणे अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा - आयारवं, आहारवं ववहारवं ओवीलए, पकुव्वए, अपरिस्साई, णिज्जाव, अवायदंसी, पियधम्मे, दधमे । १७ दशभिः स्थानैः सम्पन्नः अनगारः अर्हति आलोचनां प्रतिदातुम्, तद्यथा— Jain Education International आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, अपव्रीडकः, प्रकारी, अपरिश्रावी, निर्यापकः, अपायदर्शी, प्रियधर्मा, दृढधर्मा | पायच्छित्त-पदं ७३. दसविधे पायच्छिते पण्णत्ते, तं दशविधं प्रायश्चित्तं प्रज्ञप्तम्, जहा - तद्यथा आलोया रहे, 'पडिक्कमणारिहे, आलोचना, प्रतिक्रमणार्ह, तदुभयार्ह, तदुभयारिहे, विवेगार, विवेकार्ह, व्युत्सर्गार्ह, तपोर्ह, छेदार्ह, विग्गार, तवारि, छेयारिहे, मूलारिहे, पारंचियारि । अनवस्थाप्यार्ह, मूलाह, अणवट्टप्पारिहे, पाराञ्चितार्हम् । प्रायश्चित्त-पदम् For Private & Personal Use Only स्थान १० : सूत्र ७२-७३ ७२. दस स्थानों से सम्पन्न अनगार आलोचना देने के योग्य होता है२४ - १. आचारवान् — ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य - इन पांच आचारों से युक्त । २. आधारवान् - आलोचना लेने वाले के द्वारा आलोच्यमान समस्त अतिचारों को जानने वाला । ३. व्यवहारवान् - आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतइन पांच व्यवहारों को जानने वाला । ४. अपव्रीडक - आलोचना करने वाले व्यक्ति में, वह लाज या संकोच से मुक्त होकर सम्यक् आलोचना कर सके वैसा, साहस उत्पन्न करने वाला । ५. प्रकारीआलोचना करने पर विशुद्धि कराने वाला । ६. अपरिश्रावी - आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रगट न करने वाला । ७. निर्यापक- बड़े प्रायश्चित्त को भी निभा सके- ऐसा सहयोग देने वाला । ८. अपायदर्शीप्रायश्चित्त भङ्ग से तथा सम्यक् आलोचना न करने से उत्पन्न दोषों को बताने वाला । ६. प्रियधर्मा - जिसे धर्म प्रिय हो । १०. दृढधर्मा - जो आपत्काल में भी धर्म से विचलित न हो। प्रायश्चित्त-पद ७३. प्रायश्चित्त दस प्रकार का होता है " १. आलोचना योग्य – गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन | २. प्रतिक्रमण - योग्य -- मिथ्या मे दुष्कृतम्' - मेरा दुष्कृत निष्फल हो इसका भावना पूर्वक उच्चारण । ३. तदुभय-योग्य - आलोचना और प्रतिक्रमण । ४. विवेक-योग्य - अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग | ५. व्युत्सर्ग- योग्य कायोत्सर्ग | ६. तप-योग्य -- अनशन, ऊनोदरी आदि । ७. छेद- योग्य - दीक्षा पर्याय का छेदन । ८. मूल योग्य - पुनर्दीक्षा | ६. अनवस्थाप्य योग्य - तपस्या पूर्वक पुनर्दीक्षा | १०. पाचिक योग्य — भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक पुनर्दीक्षा | www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy