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________________ ठाणं (स्थान) ३२८ स्थान ४: सूत्र १४३-१४६ १४३. उप्पण्णणाणदंसणधरे णं अरहा उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हन् जिनः केवली १४३. उत्पन्न हुए केवल ज्ञान दर्शन को धारण जिणे केवली चत्तारि कम्मसे चत्वारि सत्कर्माणि वेदयति, तद्यथा- करने वाले अर्हन्, जिन, केवली चार वेदेति, तं जहा.वेदनीयं, आयुः, नाम, गोत्रम् । सत्कर्मों का वेदन करते हैं-१. वेदनीय, वेदणिज्ज, आउयं, णाम, गोतं। २. आयु, ३. नाम, ४. गोत्र। १८४. पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि प्रथमसमयसिद्धस्य चत्वारि सत्कर्माणि १४४. प्रथम समय के सिद्ध के चार सत्कर्म एक कम्मंसा जुगवं खिजंति, तं जहा.- युगपत् क्षीयन्ते, तद्यथा साथ क्षीण होते हैं-१. वेदनीय, यणिज्जं, आउयं, णाम, गोतं। वेदनीयं, आयुः, नाम, गोत्रम् । २. आयु, ३. नाम, ४. गोत्र। हासुप्पत्ति-पदं हास्योत्पत्ति-पदम् हास्योत्पत्ति-पद १४५. चउहि ठाणेहिं हासुप्पत्ती सिया, चतुभिः स्थानः हास्योत्पत्तिः स्यात्, १४५. चार कारणों से हंसी आती हैतं जहातद्यथा १. देखकर-विदूषक आदि की चेष्टाओं पासेत्ता, भासेत्ता, दृष्ट्वा, भाषित्वा, श्रुत्वा, स्मृत्वा । को देखकर, २. बोलकर-किसी के सुणेत्ता, संभरेत्ता। बोलने की नकल कर, ३. सुनकर-उस प्रकार की चेष्टाओं और वाणी को सुन कर, ४. यादकर-दृष्ट और श्रुत बातों को यादकर। अंतर-पदं अन्तर-पदम् अन्तर-पद १४६. चउविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधं अन्तरं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- १४६. अन्तर चार प्रकार का होता है कटुतरे, पम्हंतरे, लोहंतरे, काष्ठान्तरं, पक्ष्मान्तरं, लोहान्तरं, १. काष्ठान्तर-काष्ठ का अन्तरपत्थरंतरे। प्रस्तरान्तरम् । रूप-निर्माण आदि की दृष्टि से, एवामेव इथिए वा पुरिसस्स वा एवमेव स्त्रियः वा पुरुषस्य वा २. पक्ष्मान्तर-धागे से धागे का अन्तर सुकुमारता आदि की दृष्टि से, चउविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा- चतुर्विधं अन्तरं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा ३. लोहान्तर-लोहे से लोहे का अन्तरकटुतरसमाणे, पम्हंतरसमाणे, काष्ठान्तरसमानं, पक्ष्मान्तरसमानं, छेदन शक्ति की दृष्टि से, ४. प्रस्तरांतरलोहंतरसमाणे, पत्थरंतरसमाणे। लोहान्तरसमानं, प्रस्तरान्तरसमानम् । पत्थर से पत्थर का अन्तर-इच्छा पूर्ण करने की क्षमता [जैसे मणि] आदि की दृष्टि से। इसी प्रकार स्त्री से स्त्री का, पुरुष से पुरुष का अन्तर भी चार-चार प्रकार का होता है-१. काष्ठान्तर के समान-विशिष्ट पदवी आदि की दृष्टि से, २. पक्ष्मांतर के समान-बचन, सुकुमारता आदि की दृष्टि से, २. लोहान्तर के समान-स्नेह का छेदन करने आदि की दृष्टि से, ४. प्रस्तरांतर के समान-मनोरथ पूर्ण करने की क्षमता आदि की दृष्टि से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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