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________________ ori (स्थान) चरित -- जीवन-चरित से किसी बात को समझाना चरित ज्ञात है। जैसे--निदान दुःख के लिए होता है, यथा ब्रह्मदत्त का निदान । कल्पित- ज्ञाता है। ५२१ कल्पना के द्वारा किसी तथ्य को प्रकट करना । यौवन आदि अनित्य हैं। यहां पदार्थ की अनित्यता को कल्पितज्ञात के द्वारा समझाया गया है। पीपल का पका पत्र गिर रहा था, उसे देख नई कोपलें हंस पड़ी। पत्र बोला, तुम किस लिए हंस रही हो ? एक दिन मैं भी तुम्हारे ही जैसा था और एक दिन आएगा, तुम भी मेरे जैसी हो जाओगी।' ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में चरित और कल्पित - दोनों प्रकार के ज्ञात निरूपित हैं, इसीलिए उस अंग का नाम उपमान मात्र ---- हाथ किसलय की भांति सुकुमार हैं। इसमें किसलय की सुकुमारता से हाथ की सुकुमारता की तुलना है। उपपत्तिमात्र--- आहरण स्थान ४ : टि० १११ Jain Education International उपपत्ति ज्ञात का हेतु होती है । अभेदोपचार से उसे ज्ञात कहा जाता है। एक व्यक्ति जो खरीद रहा था । किसी ने पूछा- जो किस लिए खरीद रहे हो ?' उसने उत्तर दिया- 'खरीदे बिना मिलता नहीं ।" जिससे अप्रतीत अर्थ प्रतीत होता है, वह आहरण कहलाता है । पाप दुःख के लिए होता है, ब्रह्मदत्त की भांति | इसमें दान्तिक अर्थ सामान्य रूप में उपनीत है। आहरणतद्देस दृष्टान्तार्थ के एक देश से दान्तिक अर्थ का उपनयन करना । आहरणतद्देस कहलाता है। इसका मुंह चन्द्र जैसा है। यहां चन्द्र के सौम्यधर्म से सुख की तुलना है। चन्द्र के नेत्र, नासिका आदि नहीं है तथा वह कलंकित प्रतीत होता है। मुंह की तुलना में ये सब इष्ट नहीं है। इसलिए यह एकदेशीय उदाहरण है।" आहरणतद्दोष - १. स्थानांगवृत्ति, पत्र २४२ : आख्यानकरूपं ज्ञातं तच्च चरितकल्पितभेदात् द्विधा, तन चरितं यथा निदानं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येव, कल्पितं यथा प्रमादवतामनित्यं यौवनादोति देशनीयं यथा पाण्डुपतेण किशलयानां देशितं तथा हि "जह तुम्भे तह अभ्हेतुभेऽविय हो हिहा जहा अम्हे । अप्पा पडतं पंडयपत्तं किसलयाणं ।" २. वही, पत्र २४२ : अथवोपमानमानं ज्ञातं सुकुमारः करः किशलयमिव । ३. स्थानांगवृत्ति पत्र २४२ : अथवा ज्ञातम् — उपपत्तिमात्रं शातहेतुत्वात् कस्माद्यवा: श्रीयन्ते ? यस्मान्मुधा न लभ्यन्ते इत्यादिवदिति । आहरण सम्बन्धी दोष अथवा प्रसंग में साक्षात् ढीखने वाला दोष अथवा साध्य विकलता आदि दोषों से युक्त आहरण को आहरणतद्दोष कहा जाता है। जैसे--- शब्द नित्य है, क्योंकि वह अमूर्त है, जैसे घट | यह दृष्टान्त का साध्य-साधन - विकल नाम दोष है । घट मनुष्य के द्वारा कृत होता है इसलिए वह नित्य नहीं है । वह रूप आदि धर्मयुक्त है, इसलिए अमूर्त भी नहीं है । ४. वही, पत्र २४२ : आ - अभिविधिना हियते - प्रतीतो नीयते अप्रतीतोsasनेनेत्याहरणं यत्र समुदित एव दान्तिकोऽर्थः उपनीयते यथा पापं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येवेति । ५. वही, पत्र २४२ : तस्य - आहारणार्थस्य देशस्तद्देशः स चासाबुपचारादादरणं चेति प्राकृतत्वादाहरणशब्दस्य पूर्वनिपाते आहारगत देश इति, भावार्थश्चात्र यत्र दृष्टान्तार्थदेशेनैव दाष्टन्तिकार्थस्योपनयनं क्रियते तत्तद्देशोदाहरणमिति, यथा चन्द्र इव मुखमस्या इति इह हि चन्द्रे सौम्यत्वलक्षणेनैव देशेन मुखस्योपनयनं नानिष्टेन नयन-नासावजितत्वकलङ्का दिनेति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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