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________________ ठाणं (स्थान) ८२७ स्थान ८: टि०१५-१६ १. गायनयुक्त नृत्य। २. आख्यानक (कथानक) प्रतिबद्ध नाट्य और उसके उपयुक्त गीत । १५. (सू० १४) प्रस्तुत सूत्र में लोकस्थिति के आठ प्रकारों में छठा प्रकार है-'जीव कर्म पर आधारित है' तथा आठवां प्रकार है— 'जीव कर्म के द्वारा संगृहीत है। ये दोनों विवक्षा से प्रतिपादित हुए हैं। पहले में जीवों के अपग्राहकत्व के रूप में कर्मों का आधार विवक्षित है और दूसरे में कर्म जीवों को बांधने वाले के रूप में विवक्षित है। __इसी प्रकार पांचवें और सातवें प्रकार में जीव और पुद्गल एक-दूसरे के उपकारी हैं, इसलिए उन्हें एक-दूसरे पर आधारित कहा है। तथा वे परस्पर एक-दूसरे से बंधे हुए हैं, इसलिए उन्हें एक-दूसरे द्वारा संगृहीत कहा है। १६. गणि संपदा (सू० १५) प्रस्तुत सूत्र में गणी-आचार्य की आठ प्रकार की सम्पदाओं का उल्लेख है। दशाश्रुतम्कंध [दशा ४] में इन संपदाओं का पूरा विवरण प्राप्त होता है। वहां प्रत्येक संपदा के चार-चार प्रकार बतलाए हैं। स्थानांग के वृत्तिकार ने इनके भेदों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है। वह इस प्रकार है१. आचार संपदा [संयम की समृद्धि]-- १. संयमध्रुवयोगयुक्तता-चारित्र में सदा समाधियुक्त होना। २. असंप्रग्रह--जाति, श्रुत आदि मदों का परिहार । ३. अनियतवृत्ति-अनियत विहार।। व्यवहार भाष्य में इसका अर्थ अनिकेत भी किया है।' ४. बृद्धशीलता--शरीर और मन की निर्विकारता, अचंचलता। २. श्रुत संपदा [श्रुत की समृद्धि] १. बहुश्रुतता--अंग और उपांग श्रुत में निष्णातता, युगप्रधान पुरुष । २. परिचितसूत्रता-आगमों से चिर परिचित होना । व्यवहार भाष्य में बताया है कि जो व्यक्ति उत्त्रम, क्रम आदि अनेक प्रकार से अपने नाम की तरह श्रुत से परिचित होता है उसकी उस निपुणता को परिचितसूत्रता कहा जाता है। ३. विचित्रसूत्रता----स्व और पर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में निपुणता । व्यवहार भाष्य में इसके साथ साथ इसका अर्थ उत्सर्ग और अपवाद को जाननेवाला भी किया है।" ४. घोषविशुद्धिकर्ता--अपने शिष्यों को सूत्र उच्चारण का स्पष्ट अभ्यास कराने में समर्थता। ३. शरीर संपदा [शरीर सौन्दर्य] - १. आरोहपरिणाहयुक्तता-आरोह का अर्थ-ऊँचाई और परिणाह का अर्थ है-विशालता। इस संपदा का अर्थ है-... शरीर की उचित ऊंचाई और विशालता से सम्पन्न होना। १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०० : षष्ठपदे जीवोपग्राहत्वेन कर्मण आधारता विवक्षितेह तु तस्यैव जीवबन्धनतेति विशेषः । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०१ । ३. व्यवहारसूत्र, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २५८, पन ३७ : अणिययचारी अणिययवित्ती प्रगिहितो बिहोइ अणिकेता। ४. वही, भाष्यगाथा २६१, पत्न ३८: सगनार्म व परिचियं उक्कमउक्कमतो बहूहि विगमेहि । ५. व्यवहारसूत्र, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २६१, पत्र ३८ : ससमयपरसमएहि य उस्सग्गोववायतो चित्तं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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