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________________ ठाणं (स्थान) ८२८ स्थान ८ : टि० १६ २. अनवनपता-अलज्जनीय अंगवाला होना। व्यवहारभाष्य में इसका अर्थ है-अहीनसर्वाङ्ग जिसके सभी अंग अहीन हों-पूर्ण हों।' ३. परिपूर्ण इन्द्रियता-पांचों इन्द्रिया की परिपूर्णता और स्वस्थता। ४. स्थिरसंहननता-प्रथम संहनन-वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त। ४. वचन संपदा [वचन-कौशल] १. आदेय वचनता-जिसके वचनों को सभी स्वीकार करते हों। २. मधुर वचनता-व्यवहारभाष्य में इसके तीन अर्थ किए। १. अर्थयुक्तवचन। २. अपरुषवचन। ३. क्षीरास्रव आदि लब्धियुक्त वचन । ३. अनिश्रितवचनता-मध्यस्थ वचन । व्यवहारभाष्य में इसके दो अर्थ किए हैं:१. जो वचन क्रोध आदि से उत्पन्न न हो। २ जो बचन राग-द्वेष युक्त न हो। ४. असदिग्धवचनता-व्यवहारभाष्य में इसके तीन अर्थ किए हैं १. अव्यक्तवचन। २. अस्पष्ट अर्थ वाला वचन । ३. अनेक अर्थों वाला वचन। ५. वाचना संपदा [अध्यापन-कौशल]--- १. विदित्वोद्देशन-शिष्य की योग्यता को जानकर उद्देशन करना। २. विदित्वा समुद्देशन-शिष्य की योग्यता को जानकर समुद्देशन करना। ३. परिनिर्वाप्यवाचना-पहले दी गई वाचना को पूर्ण हृदयंगम कराकर आगे की वाचना देना। ४. अर्थ निर्यापणा--अर्थ के पौर्यापर्य का बोध कराना। ६. मति संपदा [बुद्धि-कौशल] १. अवग्रह २. ईहा ३. अवाय ४. धारणा। ७. प्रयोग संपदा [वाद-कौशल] १. आत्म परिज्ञान-वाद या धर्मकथा में अपने सामर्थ्य का परिज्ञान । २. पुरुष परिज्ञान-वादी के मत का ज्ञान, परिषद् का ज्ञान । ३. क्षेत्र परिज्ञान-वाद करने के क्षेत्र का ज्ञान । ४. वस्तु परिज्ञान-वाद-काल में निर्णायक के रूप में स्वीकृत सभापति आदि का ज्ञान । व्यवहारभाष्य में इसके दो अर्थ किए हैं। १. व्यवहारसूत्र, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २६५, पत्र ३८ : तवुलजाए धाऊ अलज्जणीयो अहीणसम्बंगो। २. वही, भाष्यगाथा २६६, पत्र ३८: पढमगसंघयणथिरो। ३. वही, भाष्यगाथा २६७, २६८, पत्र ३६ : ....."अत्यावगाडं भवे महरं ।। अहवा अपरूसवयणो खीरासवमादिलद्धिजुत्तो वा। ४. वहीं, भाष्यगाथा २६८, पत्र ३६ : । निस्सिय कोहाईहिं अहवा वीयरागदोसेहिं ।। ५. वही, भाष्यगाथा २६६, पव ३६ : अब्वत्तं अफुउत्थं अत्थ बहुत्ता व होति संदिद्धं । विवरीयमसंदिद्धं वयणे................॥ ६. व्यवहारसूत्र, उद्देशक १०, भाष्यगाथा २८७, पत्र, ४१ : वत्थु परवादी ऊ बहु आगमितो न वा च णाऊणं । रायावरायमच्चो दारुणभहस्सभावोत्ति ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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