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ठाणं (स्थान)
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स्थान ८ : टि०१६
१. यह जानना कि परवादी अनेक आगमों का ज्ञाता है या नहीं।
२. यह जानना कि राजा, अमात्य आदि कठोर स्वभाव वाले हैं अथवा भद्र स्वभाव वाले। ८. संग्रह-परिज्ञा [संघ व्यवस्था में निपुणता]
१. बालादियोग्यक्षेत्र स्थानांग के वृत्तिकार ने यहां केवल 'बालादियोग्यक्षेत्र' मात्र लिखा है। इसका स्पष्ट आशय व्यवहार भाष्य में मिलता है। व्यवहारभाष्य में इसके स्थान पर 'बहुजनयोग्यक्षेत्र' शब्द है। भाष्यकार ने इसका अर्थ करते हुए दो विकल्प प्रस्तुत किए है। आचार्य को वर्षा ऋतु के लिए ऐसे क्षेत्र का निर्वाचन करना चाहिए जो विस्तीर्ण हो, जो समूचे संघ के लिए उपयुक्त हो। २. जो क्षेत्र बालक, दुर्बल, ग्लान तथा प्रापर्णकों के लिए उपयुक्त हो।
भाष्यकार ने आगे लिखा है कि ऐसे क्षेत्र की प्रत्युपेक्षणा न करने से साधुओं का संग्रह नहीं हो सकता तथा वे साधु दूसरे गच्छों में भी चले जा सकते हैं। २. पीठ-फलग संप्राप्ति-पीठ-फलग आदि की उपलब्धि करना। व्यवहारभाष्य में इसका आशय स्पष्ट करते हुए लिखा है कि वर्षाकाल में मुनि अन्यत्र विहार नहीं करते तथा उस समय वस्त्र आदि भी नहीं लेते। वर्षाकाल में पीठ-फलग के बिना संस्तारक आदि मैले हो जाते हैं तथा भूमि की शीतलता से कुन्थु आदि जीवों की उत्पत्ति भी होती है। अत: आचार्य वर्षाकाल में पीठ-फलग आदि की उचित व्यवस्था करें। ३. कालसमानयन-यथा समय स्वाध्याय, भिक्षा आदि की व्यवस्था करना। व्यवहार भाष्य में इसको
स्पष्ट करते हुए बताया है कि आचार्य को यथासमय स्वाध्याय, उपकरणों की प्रत्युप्रेक्षा, उपधि का
संग्रह तथा भिक्षा आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।' ४. गुरु पूजा-यथोचित विनय की व्यवस्था बनाए रखना।
व्यवहार भाष्य में गुरु के तीन प्रकार किए हैं१. प्रव्रज्या देनेवाला गुरु । २. अध्यापन कराने वाला गुरु। ३. दीक्षा पर्याय में बड़े मुनि। इन तीनों प्रकार के गुरुओं की पूजा करना अर्थात् उनके आने पर खड़े होना, उनके दंड (यष्टि) को ग्रहण करना, उनके योग्य आहार का संपादन करना, बिहार आदि में उनके उपकरणों का भार ढोना तथा
उनका मर्दन आदि करना। प्रवचन सारोद्धार में सातवीं सम्पदा का नाम 'प्रयोगमति' है। सम्पदाओं के अवान्तर भेदों में शाब्दिक भिन्नता है
१. व्यवहार सूत्र उद्देशक १०, भाष्यगाथा २६०, पत्र ४१ :
वासे बहुजण जोग विच्छिन्नं जंतु गच्छपायोग ।
अहवा बि बालदुब्बलगिलाणादेसमादीणं ।। २. वही, भाष्यगाथा २६१, पत्र ४१ :
खेत्ते प्रति असंगहिया ताहे वच्चंति ते उ अन्नत्य । ३. वही, भाष्यगाथा २६१, २६२, पत्र ४१ :
.."न उ मइल्लेति निसेज्जा पीढफलगाण गहणमि । वियरे न तु वासासु अन्नकाले उ गम्मते णत्थ ।
पाणासीयल कुथादिया ततो गहण वासासु ।। ४. बही, भाष्यगाथा २६३, पत्र ४१:
जं जंमि होइ काले कायव्व तं समाणए तमि। सज्झाया पट्ट उवही उप्यायण भिक्खमादी य ।।
५. वहीं, भाष्यगाथा २६४, २६५, पत्र ४१, ४२ :
ग्रह गुरु जे णं पब्वावितो उ जस्स व अहीति पासंमि । अहवा अहागुरु खलु हति रायणियतरागा उ ।। तेसि अब्बुट्ठाणं दंडग्गह तह य होइ अाहारे ।
उबही वहणं विस्सामणं य संपूयणा एसा ॥ ६. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५४२ :
आयार सुय शरीरे वयणे वायण मई पोगमई । एएस संपया खलु अमिया संगहपरिण्णा ।।
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