________________
ठाणं (स्थान)
८२६
स्थान ८ : टि० १०-१४
स्थितिक्षय-आयु: स्थिति के बंध का क्षय अथवा वर्तमान भव के कारणभूत सभी कर्मों का क्षय ।'
गा
१०. अंतकुल कृपणकुल (सू० १०)
यहां छह कुलों का नामोल्लेख हुआ है। ये कुल व्यक्तिवाची नहीं किन्तु समूहवाची हैं। इनसे उस समय की सामाजिक व्यवस्था का एक रूप सामने आता है। वृत्तिकार ने उनकी व्याख्या इस प्रकार की है
अंतकुल--म्लेच्छकुल । वरुट, छिपक आदि का कुल । प्रांतकुल-चांडाल आदि के कुल । तुच्छकुल-छोटे परिवार वाले कुल, तुच्छ विचार वाले कुल । दरिद्रकुल-निर्धनकुल। भिक्षाककुल-भिक्षा से जीवन-निर्वाह करने वाले भिखमंगों के कुल ।
कृपणकुल-दान द्वारा आजीविका चलाने वाले कुल ; नट, नग्नाचार्य आदि के कुल जो खेल-तमाशा आदि दिखाकर आजीविका चलाते हैं।
११. दिव्यधुति (सू० १०)
सामान्यतः आगमों में यह पाठ 'जुई या जुति' प्राप्त होता है। उसका अर्थ है 'द्युति' । वृत्तिकार ने जिस आदर्श को मानकर व्याख्या की है, उसमें उन्हें जुत्ति' पाठ मिला है । उसके आधार पर उन्होंने इसका संस्कृत पर्याय 'युक्ति' और उसका अर्थ----अन्यान्य 'भांतों' (विभागों वाला) किया है।' १२. दिव्यप्रभा... दिव्यलेश्या (सू० १०)
प्रभा--माहात्म्य । छाया–प्रतिबिम्ब। अचि-शरीर से निर्गत तेज की ज्वाला। तेज-शरीरस्थ कांति।
लेश्या-शुक्ल आदि अन्तःस्थ परिणाम । १३. उद्योतित ...प्रभासित (सू० १०)
उद्योतित का अर्थ है-स्थूल वस्तुओं को प्रकाशित करना और प्रभासित का अर्थ है-सूक्ष्म वस्तुओं को प्रकाशित करना ऐसे ये दोनों शब्द एकार्थक भी हैं।
१४. आहत नाट्यों, गीतों (सू० १०)
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६८ : देवलोकादवधेः प्रायुः कर्मपुद्गल
निर्जरणेन, भवक्षयेण-प्रायुः कर्मादिनिबन्धनदेवपर्यायनाशेन, स्थितिक्षयेण-आयुः स्थितिबन्धक्षयेण देवभवनिबन्धन
शेषकर्मणां वा। २. स्थानांगवृत्ति पत्र ३९८ : अन्तकुलाणि-वरुटपिकादीना
प्रान्तकुलानि – चण्डालादीनां तुच्छकुलानि–प्रल्पमानुषाणि प्रगम्भीराशयानि वा दरिदकुलानि-अनीश्वराणि कृपणकुलानि-तर्कणवृत्तीनि नटनग्नाचार्यादीनां भिक्षाककुलानि-भिक्षणवृत्तीनि ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६६: युक्त्या-अन्यान्यभक्तिभिस्तथा
विधद्र व्ययोजनेन । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६६ : उद्योतयमानः-स्थूलवस्तूपदर्शनतः
प्रभासयमानस्तु-सूक्ष्मवस्तूपदर्शनत इति, एकाथिकत्वेऽपि
चैतेषां न दोषः। ५. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३६६ : (क) अहत :-अनुबद्धो रवस्यतद्विशेषणं नाट्यं नृत्तं तेन
युक्त गीतं नाट्यगीतम् । (ख) अथवा 'आह-य' ति आख्यानकप्रतिबद्धं यन्नाट्यं तेन युक्तं यत् तद् गीतम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org