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ठाणं (स्थान)
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स्थान ८: सूत्र ४-६
आलोचना से आठ गुण निष्पन्न होते हैं१. लघुता-मन अत्यन्त हल्का हो जाता है। २. प्रसन्नता-मानसिक प्रसक्ति बनी रहती है। ३. आत्मपर नियंत्रिता---स्व और पर नियंत्रण सहज फलित होता है। ४. आर्जव-ऋजुता बढ़ती है। ५. शोधि-दोषों की विशुद्धि होती है। ६. दुष्करकरण-दुष्कर कार्य करने की क्षमता बढ़ती है। ७. आदर--आदर भाव बढ़ता है। ८. निःशल्यता-मानसिक गांठे खुल जाती हैं और नई गांठें नहीं घलती; ग्रन्थि-भेद हो जाता है।
४. नलाग्नि (सू० १०)
- इसका अर्थ है-नरकट की अग्नि । नरकट पतली-लम्बी पत्तियों तथा पतले गांठदार डंटल वाला एक पौधा होता है।
५-७ शुण्डिका भण्डिका गोलिका का चूल्हा (सू० १०)
'सोडिय' पेटी के आकार का एक भाजन होता है जो मद्य पकाने के लिए, आटा सिझाने के काम आता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ कजावा' किया है।
लिंछाणि का अर्थ है...चल्हा। वृत्तिकार ने प्राचीन मत का उल्लेख करते हए गोलिय' 'सोडिय', और 'भंडिय' को अग्नि के आश्रयस्थान-विभिन्न प्रकार के चूल्हे माना है। कुछ व्याख्याकारों ने इन्हें विभिन्न देशों में रूढ आटे को पकाने वाली अग्नियों के प्रकार माना है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक अर्थ करते हुए भंडिका' को छोटी हांडी और गोतिका' को बड़ी हांडी माना है। ८. बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् (सू० १०)
देवताओं के कर्मकर स्थानीय देव और देवियां बाह्य परिषद् की सदस्य होती हैं तथा पुत्र कलत्र स्थानीय देव और देवियां आभ्यन्तर परिषद् के सदस्य होते हैं।
६. आयु, भव और स्थिति के क्षय (सू० १०)
___ आगमों में मृत्यु के वर्णन में प्राय: ये तीन शब्द संयुक्त रूप से प्रयुक्त होते हैं। ऐसे तो ये तीनों शब्द एकार्थक हैं, किन्तु इनमें कुछ भेद भी है।
आयक्षय...मनुष्य आदि की पर्याय के निमित्तभूत आयुष्य कर्म के पुद्गलों का निर्जरण। भवक्षय-वर्तमान भव (पर्याय) का सर्वथा विनाश ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६६ ।
लहुयाल्हाइयजणणं अप्पपर नियति अज्जवं सोही।
दुक्करकरणं पाढा निस्सल्लत्तं च सोहिगुणा॥ २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६८ : सुण्डिकाः पिटकाकाराणि सुरा
पिष्टस्वेदनभाजनानि कवेल्लयो वा संभाव्यन्ते । ३. वही, पत्र ३६८ : उक्तं च वृद्धः-गोलियसोंडियभंडिय
लिहाणि अग्नेरावयाः।
४. वही, पत्र ३६८ : अन्यस्तु देशभेदरूढ्या एते पिष्टपाच
काम्यादि भेदा इत्युक्तम् । ५. वही, पत्र ३९८ : भंडिका...- स्थाल्यः वा एव महत्यो
गोलिकाः। ६. वही, पत्र ३९८: देवलोकेषु बाह्या अप्रत्यासन्ना दासा
दिवत् अभ्यन्तरा प्रत्यासन्ना पुत्रकलबादिवत् परिषत् परिवारो भवति ।
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