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________________ ठाणं (स्थान) ८२४ स्थान ८ : टि० २-३ २. योनि-संग्रह (सू० २) योनि-संग्रह का अर्थ है---प्राणियों की उत्पत्ति के स्थानों का संग्रह। जीव यहां से मरकर जहां उत्पन्न होता है, उसे 'गति' और जहाँ से आकर यहां उत्पन्न होता है, उसे 'आगति' कहते हैं। अंडज, पोतज और जरायुज-इन तीन प्रकार के जीवों की गति और आगति आठ-आठ प्रकार की होती है। शेष रसज, संस्वेदिम, सम्मूच्छिम, उद्भिन्न और औपपातिक नरक और देव] जीवों की गति और आगति आठ प्रकार की नहीं होती। ये नारक या देवयोनि में उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि इनमें (नारक तथा देवयोनि में) केवल पञ्चेन्द्रिय जीव ही उत्पन्न होते हैं। औपपातिक जीव भी रसज आदि योनियों में उत्पन्न नहीं होते। वे केवल पञ्चेन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवों की योनियों में ही उत्पन्न होते हैं।' ३. (सू० १०) जो व्यक्ति एक भी माया का आचरण कर उसकी विशुद्धि नहीं करता. उसके तीनों जन्म गहित होते हैं १. उसका वर्तमान जीवन गहित होता है। लोग स्थान-स्थान पर उसकी निन्दा करते हैं और उसे बुरा-भला कहते हैं। वह अपने दोष के कारण सदा भीत और उद्विग्न रहता है तथा अपने प्रकट और प्रच्छन्न दोषों को घुमाता रहता है। इन आचरणों से वह अपना विश्वास खो देता है। इस प्रकार उसका वर्तमान जीवन निन्दित हो जाता है। २. उसका उपपात (देव जीवन) गहित होता है। मायावी व्यक्ति मरकर यदि देवयोनि में उत्पन्न होता है तो वह किल्बिषिक आदि नीच देवों के रूप में उत्पन्न होता है। ३. उसका आयाति-जन्म गहित होता है। मायावी किल्बिषिक आदि देवस्थानों से च्युत होकर पुनः मनुष्य जन्म में आता है तब वह गहित होता है, जनता द्वारा सम्मानित नहीं होता।' जो मायावी अपनी माया की विशुद्धि नहीं करता, उसके अनर्थों की ओर संकेत करते हुए वृत्तिकार ने बताया जो व्यक्ति लज्जा, गौरव या विद्वता के मद से अपने अपराध को गुरु के समक्ष स्पष्ट नहीं करते, वे कभी आराधक नहीं हो सकते। जितना अनर्थ शस्त्र, विष, दुष्प्रयुक्त बैताल (भूत) और यंत्र तथा क्रुद्ध सर्प नहीं करता उतना अनर्थ आत्मा में रहा हुआ माया-शल्य करता है। इसके अस्तित्व-काल में सम्बोधि अत्यन्त दुर्लभ हो जाती है और प्राणी अनन्त जन्म-मरण करता है। प्रस्तुत सत्र में माया का आचरण कर उसकी आलोचना करने और न करने से होने वाले अनर्थों का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन हुआ है । वृत्तिकार ने आलोचना करने वालों के कुछेक गुणों की ओर संकेत किया है। गुण मनोविज्ञान की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। १. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६५ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६७ । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६७ : लज्जाए गारवेण य बहुस्सुयमएण वावि दुच्चरियं । जे न कहिंति गुरूणं न हु ते माराहगा होति ॥ नवि तं सत्यं ब विसं व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमाइओ कुद्धो । जं कुणइ भावसल्लं अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि ! दुल्लहबोहीअत्तं अणंतसंसारियत्तं वा ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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