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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७:टि०४६ १. वृश्चिकविद्या ३. मूषकविद्या ५. वराहीविद्या ७. पोताकीविद्या
२. सर्पविद्या ४. मृगीविद्या ६. काकविद्या रोहगुप्त ने यह सुना। वह अवाक रह गया। कुछ क्षणों के बाद वह बोला.....गुरुदेव ! अब क्या किया जाए? क्या मैं कहीं भाग जाऊं?' आचार्य ने कहा---'वत्स ! भय मत खा । मैं तुझे इन विद्याओं की प्रतिपक्षी सात विद्याएं सिखा देता हूं। तू आवश्यकतावश उनका प्रयोग करना।' रोहगुप्त अत्यन्त प्रसन्न हो गया। आचार्य ने सात विद्याएं उसे सिखाई१. मायूरी
५. सिंही २. नाकुली
६. उलूकी ३. विडाली
७. उलावकी ४. व्याघ्री आचार्य ने रजोहरण को मंत्रित कर रोहगुप्त को देते हुए कहा--'वत्स ! इन सात विद्याओं से तू उस परिव्राजक को पराजित कर सकेगा। यदि इन विद्याओं के अतिरिक्त किसी दूसरी विद्या की आवश्यकता पड़े तो तू इस रजोहरण को घुमाना । तू अजेय होगा, तुझे तब कोई पराजित नहीं कर सकेगा। इन्द्र भी तुझे जीतने में समर्थ नहीं हो सकेगा।'
रोहगुप्त गुरु का आशीर्वाद ले राजसभा में गया। राजा बलश्री के समक्ष वाद करने का निश्चय कर परिव्राजक पोट्टशाल को बुला भेजा। दोनों वाद के लिए प्रस्तुत हुए। परिव्राजक ने अपने पक्ष की स्थापना करते हुए कहा-राशि दो हैं—जीव राशि और अजीव राशि। रोहगुप्त ने जीव, अजीव और नोजीव इन तीन राशियों की स्थापना करते हुए कहापरिव्राजक का कथन मिथ्या है। विश्व में प्रत्यक्षत: तीन राशियाँ उपलब्ध होती हैं। नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य आदि जीव हैं। घट, पट आदि अजीव हैं और छुछंदर की कटी हुई पूंछ नोजीव है आदि-आदि। इस प्रकार अनेक युक्तियों के द्वारा रोहगुप्त ने परिव्राजक को निरुत्तर कर दिया।
अपनी पराजय देख परिव्राजक अत्यन्त क्रुद्ध हो एक-एक कर सभी विद्याओं का प्रयोग करने लगा। रोहगुप्त सावधान था ही, उसने भी बारी-बारी से उन विद्याओं की प्रतिपक्षी विद्याओं का प्रयोग कर उनको विफल बना दिया। परिव्राजक ने जब देखा कि उसकी सभी विद्याएँ विफल हो रही हैं, तब उसने अन्तिम अस्त्र के रूप में गर्दभी विद्या का प्रयोग किया। रोहगुप्त ने भी अपने आचार्य द्वारा प्रदत्त अभिमंत्रित रजोहरण का प्रयोग कर उसे भी विफल कर डाला। सभी सभासदों ने परिव्राजक को पराजित घोषित कर उसका तिरस्कार किया।
विजय प्राप्त कर रोहगुप्त आचार्य के पास आया और सारी घटना ज्यों की त्यों उन्हें सुनाई। आचार्य ने कहाशिष्य ! तूने असत्य प्ररूपणा कैसे की ? तूने क्यों नहीं कहा कि राशि तीन नहीं हैं ?
रोहगुप्त बोला-भगवन् ! मैं उसकी प्रज्ञा को नीचा दिखाना चाहता था। अतः मैंने ऐसी प्ररूपणा कर उसको सिद्ध भी किया है।
आचार्य ने कहा-अभी समय है। जा और अपनी भूल स्वीकार कर आ ।
रोहगुप्त अपनी भूल स्वीकार करने के लिए तैयार न हुआ और अन्त में आचार्य से कहा--यदि मैंने तीन राशि की स्थापना की है तो उसमें दोष ही क्या है ? उसने अपनी बात को विविध प्रकार से सिद्ध करने का प्रयत्न किया। आचार्य ने अनेक युक्तियों से तीन राशि के मत का खंडन कर उसे सही तत्त्व पहचानने के लिए प्रेरित किया, परन्तु सब व्यर्थ । अन्त में आचार्य ने सोचा-यह स्वयं नष्ट होकर अनेक दूसरे व्यक्तियों को भी भ्रान्त करेगा। अच्छा है कि मैं लोगों के समक्ष राजसभा में इसका निग्रह करूं। ऐसा करने से लोगों का इस पर विश्वास नहीं रहेगा और मिथ्या तत्त्व का प्रचार भी रुक जायगा।
___आचार्य राजसभा में गए और महाराज बलश्री से कहा-'राजन् ! मेरे शिष्य रोहगुप्त ने सिद्धान्त के विपरीत तथ्य की स्थापना की है। हम जैन दो ही राशि स्वीकार करते हैं, किन्तु वह आग्रहवश इसको स्वीकार नहीं कर रहा है। आप उसको राजसभा में बुलाएं और मैं जो चर्चा करूं, वह आप सुनें।' राजा ने आचार्य की बात मान ली।
चर्चा प्रारंभ हुई। छह मास बीत गए। एक दिन राजा ने आचार्य से कहा-इतना समय बीत गया। मेरे राज्य का सारा कार्य अव्यवस्थित हो रहा है। यह वाद कब तक चलेगा ? आचार्य ने कहा-'राजन् ! मैंने जानबूझकर इतना समय
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