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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७ : टि०४६
बिताया है। आज मैं उसका निग्रह करूंगा।'
दूसरे दिन प्रात: वाद प्रारम्भ हुआ। आचार्य ने कहा- यदि तीन राशि वाली बात सही है तो कुत्रिकापण में चलें। वहाँ सभी वस्तुएं उपलब्ध होती हैं।
राजा को साथ लेकर सभी कुत्रिकापण में गए और वहां के अधिकारी से कहा-'हमें जीव, अजीव और नोजीवये पदार्थ दो।' वहाँ के अधिकारी देव ने जीव और अजीव ला दिए और कहा-नोजीव की श्रेणि का कोई पदार्थ विश्व में है ही नहीं। राजा को आचार्य के कथन की यथार्थता प्रतीत हुई।
इस प्रकार आचार्य ने १४४ प्रश्नो द्वारा रोहगुप्त का निग्रह कर उसे पराजित किया। राजा ने आचार्य श्रीगुप्त का बहुत सम्मान किया और सभी पार्षदों ने रोहगुप्त का तिरस्कार कर उसे राजसभा से निष्काषित कर भगा दिया। राजा ने उसे अपने देश से निकल जाने का आदेश दिया और सारे नगर में जैन शासन के विजय की घोषणा करवाई।
रोहगुप्त मेरा भानजा है, उसने मेरे साथ इतनी प्रत्यनीकता बरती है। वह मेरे साथ रहने के योग्य नहीं है। आचार्य के मन में क्रोध उभर आया और उन्होंने उसके सिर पर 'खेल-मल्लक' (श्लेष्म पात्र) फेंका, उससे रोहगुप्त का सारा शरीर राख से भर गया और वह अपने आग्रह के लिए संघ से पृथक् हो गया।
रोहगुप्त ने अपनी मति से तत्त्वों का निरूपण किया और वैशेषिक मत की प्ररूपणा की। उसके अनेक शिष्यों ने अपनी मेधा शक्ति से उन तत्त्वों को आगे बढ़ाकर उसको प्रसिद्ध किया।
७ अबद्धिक-भगवान महावीर के निर्वाण के ५८४ वर्ष पश्चात् दशपुर नगर में अबद्धिक मत का प्रारम्भ हुआ। इसके प्रवर्तक थे आचार्य गोष्ठामाहिल ।
उस समय दसपुर नाम का नगर था। वहाँ राजकुल से सम्मानित ब्राह्मणपुत्र आर्यरक्षित रहता था। उसने अपने पिता से पढ़ना प्रारम्भ किया। पिता का सारा ज्ञान जब वह पढ़ चुका तब विशेष अध्ययन के लिए पाटलिपुत्र नगर में गया
और वहाँ चारों वेद, उनके अंग और उपांग तथा अन्य अनेक विद्याओं को सीखकर घर लौटा। माता के द्वारा प्रेरित होकर उसने जैन आचार्य तोसलिपुत्र से भागवती दीक्षा ग्रहण कर दृष्टिवाद का अध्ययन प्रारम्भ किया और तदनन्तर आर्य वज्र के पास नौ पूर्वो का अध्ययन सम्पन्न कर दसवें पूर्व के चौबीस यविक ग्रहण किए।
आचार्य आर्यरक्षित के तीन प्रमुख शिष्य थे-दुर्बलिकापुष्यमित्र, फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल । उन्होंने अन्तिम समय में दुर्बलिकापुष्यमित्र को गण का भार सौंपा।
एक बार आचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र अर्थ की वाचना दे रहे थे। उनके जाने के बाद विध्य उस वाचना का अनुभाषण कर रहा था। गोष्ठामाहिल उसे सुन रहा था। उस समय आठवें कर्मप्रदाद पूर्व के अंतर्गत कर्म का विवेचन चल रहा था। उसमें एक प्रश्न यह था कि जीव के साथ कर्मों का बंध किस प्रकार होता है ? उसके समाधान में कहा गया था कि कर्म का बंध तीन प्रकार से होता है१. आवश्यकनियुक्तिदीपिका में १४४ प्रश्नों का विवरण इस
सत्ता के पांच भेद हैं- सत्ता, सामान्य, सामान्यविशेष, प्रकार प्राप्त है
विशेष और समवाय। वैशेषिक षट् पदार्थ का निरूपण करते हैं
इन भेदों का योग (6+१७-५+५)=३६ होता १. द्रव्य ४. सामान्य
है । इनको पृथ्वी , अपृथ्वी, नो पृथ्वी, नो अपृथ्वी- इन चार २. गुण ५. विशेष
विकल्पों से गुणित करने पर ३६x४=१४४ भेद प्राप्त ३. कर्म ६. समवाय
होते हैं। द्रव्य के नौ भेद हैं--पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, ____ आचार्य ने इसी प्रकार के १४४ प्रश्नों द्वारा रोहगुप्त काल, दिक, मन और आत्मा ।
को निरुत्तर कर उसका निग्रह किया। (आवश्यकनियुक्ति गुण में सतरह भेद हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, दीपिका पत्र १४५, १४६) परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, २. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति पत्र ४११-४१५ दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयल ।
३. आवश्यकभाष्य, गाथा १४१ : कर्म के पांच भेद हैं--उत्क्षेपण, अवक्षेपण प्रसारण,
पंचसया चूलसीआ तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । आकुंचन और गमन।
अबद्धिगाण दिट्ठि दसपुरनयरे समुप्पन्ना।।
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