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चाहा
ठाणं (स्थान)
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स्थान ७:टि०४६ १. स्पृष्ट-कुछ कर्म जीव प्रदेशों के साथ स्पर्श मात्र करते हैं और कालान्तर में स्थिति का परिपाक होने पर उनसे विलग हो जाते हैं। जैसे—सूखी भीत पर फेंकी गई रेत भीत का स्पर्श मात्र कर नीचे गिर जाती है।
२ स्पृष्टबद्ध - कुछ कर्म जीव-प्रदेशों का स्पर्श कर बद्ध होते हैं और वे भी कालान्तर में विलग हो जाते हैं। जैसेगीली भीत पर फेंकी गई रेत, कुछ चिपक जाती है और कुछ नीचे गिर जाती है।
३. स्पृष्टबद्ध निकाचित-कुछ कर्म जीव-प्रदेशों के साथ गाढ़ रूप में बंध प्राप्त करते हैं। वे भी कालान्तर में विलग हो जाते हैं।
यह प्रतिपादन सुनकर गोष्ठामाहिल का मन विचिकित्सा से भर गया। उसने कहा -कर्म को जीव के साथ बद्ध मानने से मोक्ष का अभाव हो जाएगा, कोई भी प्राणी मोक्ष नहीं जा सकेगा। अतः सही सिद्धान्त यही है कि कर्म जीव के साथ स्पृष्ट होते हैं, बद्ध नहीं, क्योंकि कालान्तर में वे वियुक्त होते हैं। जो वियुक्त होता है, वह एकात्मक से बद्ध नहीं हो सकता। उसने अपनी शंका विध्य के समक्ष रखी। विध्य ने बताया कि आचार्य ने इसी प्रकार का अर्थ बताया है।
गोष्ठामाहिल के गले यह बात नहीं उतरी। वह मौन रहा। एक बार नौवें पूर्व की बाचना चल रही थी। उसमें साधुओं के प्रत्याख्यान का वर्णन आया। उसका प्रतिपाद्य था कि यथाशक्ति और यथाकाल प्रत्याख्यान करना चाहिए । गोष्ठामाहिल ने सोचा-अपरिमाण प्रत्याख्यान ही श्रेयस्कर होता है, परिमाण प्रत्याख्यान में बांछा का दोष उत्पन्न होता है। एक व्यक्ति परिमाण प्रत्याख्यान के अनुसार पौरुषी, उपवास आदि करता है, किन्तु पौरुषी या उपवास का कालमान पूर्ण होते ही उसमें खाने-पीने की आशा तीव्र हो जाती है । अतः यह सदोष है। यह सोचकर वह विध्य के पास गया और अपने विचार उनके समक्ष रखे। विंध्य ने उसे सुना-अनसुना कर, उसकी उपेक्षा की। तब गोष्ठामाहिल ने आचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र के पास जाकर अपने विचार व्यक्त किए। आचार्य ने कहा-अपरिमाण का अर्थ क्या है ? क्या इसका अर्थ यावत् शक्ति है या भविष्यत् काल है ? यदि यावत् शक्ति अर्थ को स्वीकार किया जाए तो वह हमारे मन्तव्य का ही स्वीकार होगा और यदि दूसरा अर्थ लिया जाए तो जो व्यक्ति यहाँ से मर कर देवरूप में उत्पन्न होते हैं, उनमें सभी व्रतों के भंग का प्रसंग आ जाता है। अत: अपरिमित प्रत्याख्यान का सिद्धान्त अयथार्थ है। गोष्ठामाहिल को उसमें भी श्रद्धा नहीं हुई और वह विप्रतिपन्न हो गया। आचार्यने उसे समझाया। अपने आग्रह को छोड़ना उसके लिए संभव नहीं था। वह और आग्रह करने लगा। दूसरे गच्छों के स्थविरों को इसी विषय में पूछा। उन्होंने कहा--'आचार्य ने जो अर्थ दिया है, वह सही है।' गोष्ठामाहिल ने कहा-आप नहीं जानते। मैंने जैसा कहा है, वैसे ही तीर्थंकरों ने भी कहा है। स्थविरों ने पुन: कहा'आर्य! तुम नहीं जानते, तीर्थंकरों की आशातना मत करो।' परन्तु गोष्ठामाहिल अपने आग्रह पर दृढ़ रहा। तब स्थविरों ने सारे संघ को एकत्रित किया। समूचे संघ ने देवता के लिए कायोत्सर्ग किया। देवता उपस्थित होकर बोलाकहो, क्या आदेश है ? संघ ने कहा--तीर्थकर के पास जाओ और यह पूछो कि जो गोष्ठामाहिल कह रहा है वह सत्य है या दुर्बलिकापुष्यमित्र आदि संघ का कथन सत्य है ? देवता ने कहा-'मुझ पर अनुग्रह करें तथा मेरे गमन में कोई प्रतिघात न हो इसलिए आप सब कायोत्सर्ग करें।' सारा संघ कायोत्सर्ग में स्थित हुआ। देवता गया और भगवान् तीर्थंकर से पूछकर लौटा। उसने कहा---'संघ जो कह रहा है वह सत्य है; गोष्ठामाहिल का कथन मिथ्या है।' देवता का कथन सुनकर सब प्रसन्न हुए।
गोष्ठामाहिल ने कहा-इस बेचारे में कौन सी शक्ति है कि यह तीर्थकर के पास जाकर कुछ पूछे ?
लोगों ने उसे समझाया, पर वह नहीं माना । अन्त में पुष्पमित्र उसके साथ आकर बोले-आर्य! तुम इस सिद्धान्त पर पुनर्विचार करो, अन्यथा तुम संघ में नहीं रह सकोगे। गोष्ठामाहिल ने उनके वचनों का भी आदर नहीं किया। उसका आग्रह पूर्ववत् रहा । तब संघ ने उसे बहिष्कृत कर डाला।
___ अबद्धिक मतवादी मानते हैं कि कर्म आत्मा का स्पर्श करते हैं, उसके साथ एकीभूत नहीं होते।
२. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पन ४१५-४१८ ।
१. आवश्यक, मलयगिरि वृत्ति पत्र ४१६ में इनके स्थान पर
बद्ध, बद्धस्पृष्ट और बद्धस्पृष्टनिकाचित-ये शब्द हैं ।
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