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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७: टि०४६
समुच्छेदवादी प्रत्येक पदार्थ का संपूर्ण विनाश मानते हैं वे एकान्त समूच्छेद का निरूपण करते हैं।
५. द्वैक्रिय--भगवान् महावीर के निर्वाण के २२८ वर्ष पश्चात् उल्लुकातीर नगर में द्विक्रियावाद की उत्पत्ति हुई।' इसके प्रवर्तक आचार्य गंग थे।
प्राचीन काल में उल्लुका नदी के एक किनारे खेड़ा था और दूसरे किनारे उल्लुकातीर नाम का नगर था। वहां आचार्य महागिरी के शिष्य आचार्य धनगुप्त रहते थे। उनके शिष्य का नाम गंग था। वे भी आचार्य थे। वे उल्लका नदी के इस ओर खेड़े में वास करते थे। एक बार वे शरद् ऋतु में अपने आचार्य को वंदना करने निकले। मार्ग में उल्लुका नदी थी। वे नदी में उतरे। वे गंजे थे। ऊपर सुरज तप रहा था। नीचे पानी की ठंडक थी। उन्हें नदी पार करते समय सिर को सूर्य की गर्मी और पैरों को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था। उन्होंने सोचा-'आगमों में ऐसा कहा है कि एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है, दो का नहीं। किन्तु मुझे प्रत्यक्षतः एक साथ दो क्रियाओं का वेदन हो रहा है। वे अपने आचार्य के पास पहुंचे और अपना अनुभव उन्हें सुनाया। गुरु ने कहा--'वत्स ! वास्तव में एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है, दो का नहीं। मन का क्रम बहुत सूक्ष्म है, अत: हमें उसकी पृथक्ता का पता नहीं लगता।' गुरु के समझाने पर भी वे नहीं समझे, तब उन्हें संघ से अलग कर दिया।
अब आचार्य गंग संघ से अलग होकर अकेले विहरण करने लगे। एक बार वे राजगृह नगर में आए। वहाँ महातपःतीरप्रभ नामका एक झरना था। वहां मणिनाग नामक नाग का चैत्य था। आचार्य गंग उस चैत्य में ठहरे। धर्म-प्रवचन सुनने के लिए पर्षद् जुड़ी। आचार्य गंग ने अपने द्वैक्रियवाद के मत का प्रतिपादन किया। तब मणिनाग ने उस परिषद में कहा-अरे दुष्ट शिष्य ! तू अप्रज्ञापनीय का प्रज्ञापन क्यों कर रहा है ? इसी स्थान पर एक बार भगवान् ने एक समय में एक ही क्रिया के वेदन की बात का प्रतिपादन किया था। तु क्या उनसे अधिक ज्ञानी है ?अपनी विपरीत प्ररूपणा को छोड़ा, अन्यथा तेरा कल्याण नहीं होगा। मणिनाग की बात सुन आचार्य गंग के मन में प्रकम्पन पैदा हुआ और उन्होंने सोचा कि मैंने यह ठीक नहीं किया। वे अपने गुरु के पास आए और प्रायश्चित्त ले संघ में सम्मिलित हो गए।
द्वैक्रियवादी एक ही क्षण में एक साथ दो क्रियाओं का अनवेदन मानते हैं।
६. राशिक-भगवान महावीर के निर्वाण के ५४४ वर्ष पश्चात् अंतरंजिका नगरी में राशिक मत का प्रवर्तन हुआ। इसके प्रवर्तक आचार्य रोहगुप्त (षडूलुक) थे।
प्राचीन काल में अंतरंजिका नाम की नगरी थी। वहाँ के राजा का नाम बलथी था। वहां भूतगृह नाम का एक चैत्य था। एक बार आचार्य श्रीगुप्त वहाँ ठहरे हुए थे। उनके संसारपक्षीय भानेज रोहगुप्त उनका शिष्य था। एक बार वह दूसरे गांव से आचार्य को वंदना करने आ रहा था। वहाँ एक परिव्राजक रहता था। उसका नाम था पोट्टशाल। वह अपने पेट को लोहे की पट्टी से बांध कर, जंबू वृक्ष की एक टहनी को हाथ में ले घूमता था। किसी के पूछने पर वह कहता-ज्ञान के भार से मेरा पेट फट न जाए इसलिए मैं अपने पेट को लोहे की पट्टियों से बांधे रहता हूं तथा इस समूचे जम्बूद्वीप में मेरा प्रतिवाद करने वाला कोई नहीं, अतः जम्बू वृक्ष की शाखा को हाथ में ले घूमता हूं।' वह सभी धार्मिकों को वाद के लिए चुनौती दे रहा था। सारे गांव में चुनौती का पटह फेरा । रोहगुप्त ने उसकी चुनौती स्वीकार कर आचार्य को सारी बात सुनाई। आचार्य ने कहा----वत्स ! तूने ठीक नहीं किया। वह परिव्राजक अनेक विद्याओं का ज्ञाता है। इस दृष्टि से वह तुझसे बलवान् है । वह सात विद्याओं में पारंगत है
३. आवश्यकभाष्य, गाथा १३५ :
पंच सया चोयाला तइया सिद्धि गयस्स बीरस्स । पुरिमंतरंजियाए तेरासियदिट्ठि उप्पन्ना।
१. आवश्यकभाष्य, गाथा १३३ :
अट्ठावीसा दो वाससया तइया सिद्धिगयस्स वीरस्स।
दो किरियाणं दिट्ठी उल्लुगतीरे समुप्पन्ना ।। २. (क) आवश्यक, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ४०६, ४१० । (ख) विशेषआवश्यकभाष्य गाथा २४५०
मणिनागेणारद्धो भयोववत्तिपडिवोहितोवोत्तुं । इच्छामो गुरुमूलं गंतूण ततो पडिक्कतो॥
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