________________
ठाणं (स्थान)
७७६
स्थान ७: टि०४६
एक बार वे श्रमण विहार करते हुए राजगृह में आए। वहां मौर्यवंशी राजा बलभद्र श्रमणोपासक था। उसने श्रमणों के आगमन तथा उनके दर्शन की बात सुनी। उसने अपने चार पुरुषों को बुलाकर कहा - 'जाओ, उन श्रमणों को यहाँ ले आओ।' वे गए और श्रमणों को ले आए। राजा ने कहा--'इन सभी श्रमणों के कोड़े मारो।' चार पुरुष गए और हाथी को मारने के कोड़े ले आए। साधुओं ने कहा- 'राजन् ! हम तो जानते थे कि तुम श्रावक हो तुम हमें मरवाओगे?' राजा ने कहा-'तुम चोर हो या चारक हो या गुप्तचर हो ? यह कौन जानता है ?' उन्होंने कहा-हम साधु हैं। राजा बोला'तुम श्रमण हो या चारक तथा मैं ही धावक हूं या नहीं—यह निश्चयपूर्वक कौन कह सकता है ?' इस घटना से वे सब समझ गए। उन्हें अपने अज्ञान पर खेद हुआ। उन्होंने अपनी भ्रांति का निराकरण कर सत्य को पहचान लिया। राजा ने क्षमायाचना करते हुए कहा-'श्रमणो! मैंने आपको प्रतिबोध देने के लिए ऐसा किया था। आप क्षमा करें।
अव्यक्तवाद को मानने वालों का कथन है कि किसी भी वस्तु के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। सब कुछ अनिश्चित है, अव्यक्त है।
अव्यक्तवाद मत का प्रवर्तन आचार्य आषाढ ने नहीं किया था। इसके प्रवर्तक थे उनके शिष्य । किन्तु इस मत के प्रवर्तन में आचार्य आषाढ का देवरूप निमित्त बना था अत: उन्हें इस मत का आचार्य मान लिया गया। इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि आचार्य आषाढ के शिष्यों ने अव्यक्तवाद का प्रतिपादन किया। जिस समय यह घटना लिखी गई उस समय उनके शिष्यों के नाम का परिचय न रहा हो, अत: सांकेतिक रूप में अभेदोपचार की दृष्टि से आचार्य आषाढ़ को ही उस मत का प्रवर्तक बतलाया गया। इस प्रश्न के एक पहलू पर अभयदेवसूरि ने विमर्श प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार आचार्य आषाढ अव्यक्त मत को संस्थापित करने वाले श्रमणों के आचार्य थे। इसीलिए उन्हें अव्यक्तवाद के आचार्य के रूप में उल्लिखित किया गया है।
४. समुच्छेदिक-भगवान महावीर के निर्वाण के २२० वर्ष पश्चात् मिथिला पुरी में समुच्छेदवाद की उत्पत्ति हुई।' इसके प्रवर्तक आचार्य अश्वमित्र थे।
एक बार मिथिलानगरी के लक्ष्मीगृह चैत्य में आचार्य महागिरि ठहरे हुए थे। उनके शिष्य का नाम कोण्डिन्य और प्रशिष्य का नाम अश्वमित्र था। वह दसवें अनुप्रवाद (विद्यानुप्रवाद) पूर्व के नपुणिक वस्तु (अध्याय) का अध्ययन कर रहा था। उसमें छिन्नछेदनय के अनुसार एक आलापक यह था कि पहले समय में उत्पन्न सभी नारक विच्छिन्न हो जाएंगे, दूसरे-तीसरे समय में उत्पन्न नैरयिक भी विच्छिन्न हो जाएंगे। इस प्रकार सभी जीव विच्छिन्न हो जाएंगे। इस पर्यायवाद के प्रकरण को सुनकर अश्वमित्र का मन शंकायुक्त हो गया। उसने सोचा, यदि वर्तमान समय में उत्पन्न सभी जीव विच्छिन्न हो जायेंगे तो सुकृत और दुष्कृत कर्मों का वेदन कौन करेगा? क्योंकि उत्पन्न होने के अन्तर ही सबकी मृत्यु हो जाती है।
गुरु ने कहा-'वत्स । ऋजुसूत्र नय के अभिप्राय से ऐसा कहा गया है, सभी नयों की अपेक्षा से नहीं । निर्ग्रन्थ प्रवचन सर्वनयसापेक्ष होता है । अत: शंका मत कर । वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं। एक पर्याय के विनाश से वस्तु का सर्वथा नाश नहीं होता, आदि-आदि।' आचार्य के बहुत समझाने पर भी वह नहीं समझा। तब आचार्य ने उसे संघ से अलग कर दिया।
एक बार वह समुच्छेदवाद का निरूपण करता हुआ कंपिल्लपुर में आया। वहां खंडरक्षा नाम के श्रावक थे। वे सभी शुल्कपाल (चुंगी अधिकारी)थे। उन्होंने उसे पकड़कर पीटा। उसने कहा- 'मैंने तो सुना था कि तुम सब श्रावक हो । श्रावक होते हुए भी तुम साधुओं को पीटते हो? यह उचित नहीं है।'
श्रावकों ने उत्तर देते हुए कहा-'आपके मत के अनुसार वे श्रावक विच्छिन्न हो गए और जो प्रवजित हुए थे वे भी व्युच्छिन्न हो गए । न हम श्रावक हैं और न आप साधु । आप कोई चोर हैं।'
यह सुन उसने कहा- 'मुझे मत पीटो, मैं समझ गया।' वह इस घटना से प्रतिबद्ध हो संघ में सम्मिलित हो गया।
१. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०६, ४०७ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३६१ :
सोऽमव्यक्तमतधर्माचार्यों, न चायं तन्मतप्ररूपकत्वेन किन्तु प्रागवस्थायामिति ।
३. आवश्यकभाष्य, गाथा १३१ :
वीसा दो वाससया तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स ।
सामुच्छेइअदिट्टी, मिहिलपुरीए समुष्पम्ना । ४. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०८, ४०६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org