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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७:टि० ४६
गौतम-भगवन् ! क्या दो, तीन यावत् संख्यात् प्रदेश को जीव कहा जा सकता है ? भगवान्--'नहीं। अखंड चेतन द्रव्य में एक प्रदेशन्यून को भी जीव नहीं कहा जा सकता है।'
यह सुन तिष्यगुप्त का मन शंकित हो गया। उसने कहा-'अंतिम प्रदेश के बिना शेष प्रदेश जीव नहीं है, इसलिए अंतिम प्रदेश ही जीव है।' गुरु ने उसे समझाया, परन्तु उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा, तब उसे संघ से अलग कर दिया।
____ अब तिष्यगुप्त अपनी बात का प्रचार करते हुए अनेक गांवों-नगरों में गये। अनेक व्यक्तियों को अपनी बात समझाई । एक बार वे आलमकल्पा नगरी में आये और अंबसालवन में ठहरे। उस नगर में मित्र श्री नामका श्रमणोपासक रहता था। वह तथा दूसरे थावक धर्मोपदेश सुनने आए। तिष्यगुप्त ने अपनी मान्यता का प्रतिपादन किया। मित्रधी ने जान लिया कि ये मिथ्या प्ररूपण कर रहे हैं। फिर भी वह प्रतिदिन प्रवचन सुनने आता रहा। एक दिन उसके घर में जीमनवार था। उसने तिष्यगुप्त को घर आने का निमन्त्रण दिया। तिष्यगुप्त भिक्षा के लिए गये, तब मित्रश्री ने अनेक प्रकार के खाद्य उनके सामने प्रस्तुत किए और प्रत्येक पदार्थ का एक-एक छोटा टुकड़ा उन्हें देने लगा। इसी प्रकार चावल का एक-एक दाना, घास का एक-एक तिनका और वस्त्र का एक-एक तार उन्हें दिया। तिष्य गुप्त ने मन ही मन सोचा कि यह अन्य सामग्री मुझे बाद में देगा। किन्तु इतना देने पर मित्रश्री तिष्यगुप्त के चरणों में वन्दन कर बोला-'अहो मैं धन्य हूं, कृतपुण्य हूं कि आप जैसे गुरुजनों का मेरे घर पादार्पण हुआ है।' इतना सुनते ही तिष्यगुप्त को क्रोध आ गया और वे बोले- 'तुमने मेरा तिरस्कार किया है।' मित्र श्री बोला-'नहीं, मैं भला आपका तिरस्कार क्यों करता? मैंने आपके सिद्धान्त के अनुसार ही आपको भिक्षा दी है, भगवान् महावीर के सिद्धान्त के अनुसार नहीं। आप अंतिम प्रदेश को ही वास्तविक मानते हैं, दूसरे प्रदेशों को नहीं । अत: मैंने प्रत्येक पदार्थ का अंतिम भाग आपको दिया है, शेष नहीं।'
तिष्यगुप्त समझ गए। उन्होंने कहा—'आर्य ! इस विषय में मैं तुम्हारा अनुशासन चाहता हूं।' मिनश्री ने उन्हें समझा कर मूल विधि से भिक्षा दी।
तिष्यगुप्त सिद्धान्त के मर्म को समझ कर पुन. भगवान् के शासन में सम्मिलित हो गए।'
जीव के असंख्य प्रदेश हैं। किन्तु जीव प्रादेशिक मतानुसारी जीव के चरम प्रदेश को ही जीव मानते हैं, शेष प्रदेशों को नहीं।
३. अव्यक्तिक-भगवान महावीर के निर्वाण के २१४ वर्ष पश्चात् श्वेतबिका नगरी में अव्यक्तवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्तक आचार्य आषाढ़ के शिष्य थे।
श्वेतबिका नगरी के पोसाल उद्यान में आचार्य आषाढ़ ठहरे हुए थे। वे अपने शिष्यों को योगाभ्यास कराते थे। उस गण में एकमान वे ही वाचनाचार्य थे।
एक बार आचार्य आषाढ़ को हृदयशूल उत्पन्न हुआ और वे उसी रोग से मर गए। मर कर वे सौधर्म कल्प के नलिनीगुल्म विमान में उत्पन्न हुए। उन्होंने अवधिज्ञान से अपने मृत शरीर को देखा और देखा कि उनके शिष्य आगाढ योग में लीन हैं तथा उन्हें आचार्य की मृत्यु की जानकारी भी नहीं है। तब देवरूप में आचार्य आषाढ नीचे आए और पून उन्होंने अपने मृत शरीर में प्रवेश कर दिया। तत् पश्चात् उन्होंने अपने शिष्यों को जागृत कर कहा- वैरात्रिक करो।' शिष्यों ने वैसा ही किया । जब उनकी योग-साधना का क्रम पूरा हुआ तब आचार्य आषाढ देवरूप में प्रकट होकर बोले'श्रमणो ! मुझे क्षमा करें। मैंने असंयती होते हुए भी संयतात्माओं से बंदना करवाई है।' अपनी मृत्यु की सारी बात बता वे अपने स्थान पर चले गए।
श्रमणों को संदेह हो गया कि कौन जाने कौन साधु है और कौन देव ? निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। सभी चीजें अव्यक्त हैं। उनका मन सन्देह में डोलने लगा। अन्य स्थविरों ने उन्हें समझाया, पर वे नहीं समझे। उन्हें संघ से अलग कर दिया।
१. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पन ४०५, ४०६ । २. आवश्यकभाष्य, गाथा १२६ :
चउदस दो वाससया तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । अब्बत्तगाण दिट्ठी सेअबिआए समुप्पन्ना ।।
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