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________________ ठाणं (स्थान) ७७४ स्थान : ७ टि० ४६ जा रहा है। यह सुन उनके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई - भगवान् क्रियमाण को कृत कहते हैं, यह सिद्धान्त मिथ्या है। मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूं कि बिछौना किया जा रहा है, उसे कृत कैसे माना जा सकता है ? उन्होंने तात्कालिक घटना से प्राप्त अनुभव के आधार पर यह निश्चय किया- 'क्रियमाण को कृत नहीं कहा जा सकता। जो सम्पन्न हो चुका है, उसे ही कृत कहा जा सकता है। कार्य की निष्पत्ति अंतिम क्षण में ही होती है, पहले दूसरे आदि क्षणों में नहीं।' उन्होंने अपने निर्ग्रन्थों को बुलाकर कहा - भगवान महावीर कहते हैं 'जो चल्यमान है वह चलित है, जो उदीर्यमाण है, वह उदीरित है और जो निर्जीर्यमाण है वह निर्जीर्ण है । किन्तु मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं कि यह मिथ्या सिद्धान्त है । यह प्रत्यक्ष घटना है कि बिछौना क्रियमाण है, किन्तु कृत नहीं है। वह संस्तीर्यमाण है, किन्तु संस्तृत नहीं है।' कुछ निर्ग्रन्थ उनकी बात से सहमत हुए और कुछ नहीं हुए। उस समय कुछ स्थविरों ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु उन्होंने स्थविरों का अभिमत नहीं माना। कुछ श्रमणों को जमाली के निरूपण में विश्वास हो गया । वे उनके पास रहे। कुछ श्रमणों को उनके निरूपण में विश्वास नहीं हुआ वे भगवान् महावीर के पास चले गए । साध्वी प्रियदर्शना भी वहीं ( श्रावस्ती में ) कुंभकार ढंक के घर में ठहरी हुई थी। वह जमाली के दर्शनार्थ आई । जमाली ने अपनी सारी बात उसे कही। उसने पूर्व अनुराग के कारण जमाली की बात मान ली उसने आर्याओं को बुलाकर उन्हें जमाली का सिद्धान्त समझाया और कुंभकार को भी उससे अवगत किया। कुंभकार ने मन ही मन सोचा - साध्वी के मन में शंका उत्पन्न हो गई है, किन्तु मैं शंकित नहीं होऊंगा। उसने साध्वी से कहा- मैं इस सिद्धान्त का मर्म नहीं समझ सकता । एक बार साध्वी प्रियदर्शना अपने स्थान पर स्वाध्याय- पौरुषी कर रही थी। ढंक ने एक अंगारा उस पर फेंका। साध्वी की घाटी का एक कोना जल गया। साध्वी ने कहा- ढंक ! मेरी संघाटी क्यों जला दी ? तब ढंक ने कहा - 'नहीं, संघाटी जली कहां है, वह जल रही है।' उसने विस्तार से 'क्रियमाण कृत' की बात समझाई। साध्वी प्रियदर्शना ने इसके मर्म को समझा और जमाली को समझाने गई । जमाली नहीं समझा, तब वह अपनी हजार साध्वियों तथा शेष साधुओं के साथ भगवान् की शरण में चली गई। जमाली अकेले रह गए । वे चंपा नगरी में गए। भगवान् महावीर भी वहीं समवसृत थे। वे भगवान के समवसरण में गए और बोले – 'देवानुप्रिय ! आपके बहुत सारे शिष्य असर्वज्ञदशा में गुरुकुल से अलग हुए हैं, वैसे मैं नहीं हुआ हूं । मैं सर्वज्ञ होकर आपसे अलग हुआ हूं।' फिर कुछ प्रश्नोत्तर हुए। जमाली ने भगवान् की बातें सुनी पर वे उन्हें अच्छी नहीं लगी। वे उठे और भगवान् से अलग चले गए और अन्त तक 'क्रियमाण कृत नहीं है - इस सिद्धान्त का प्रचार करते रहे। बहुत रतवादी द्रव्य की निष्पत्ति में दीर्घकाल की अपेक्षा मानते हैं । वे क्रियमाण को कृत नहीं मानते किन्तु वस्तु के निष्पन्न होने पर ही उसका अस्तित्व स्वीकार करते हैं । २. जीवप्रादेशिक - भगवान् महावीर के कैवल्यप्राप्ति के सोलह वर्ष पश्चात् ऋषभपुर' में जीवप्रादेशिकवाद की उत्पत्ति हुई । | एक बार ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आचार्य वसु राजगृह नगर में आए और गुणशील चैत्य में ठहरे। वे चौदहपूर्वी थे। उनके शिष्य का नाम तिष्यगुप्त था। वह उनसे आत्मप्रवाद-पूर्व पढ़ रहा था। उसमें भगवान् महावीर और गौतम का संवाद आया । गौतम ने पूछा - भगवन् ! क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कहा जा सकता है ? भगवान् — नहीं ! १. भगवती । ३३; आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०२-४०५ । २. यह राजगृह का प्राचीन नाम था । ( आवश्यक निर्युक्ति दीपिका पत्र १४३ ऋषभपुरं राजगृहस्माद्याह्ना) Jain Education International ३. आवश्यक भाष्यगाथा, १२७ सोलसवासाणि तया जिणेण उप्पाडियस्स नास्णस्स । जीवपएसिअ दिट्ठी उसभपुरम्मी समुप्पन्ना || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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