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ari (स्थान)
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स्थान ७ : टि० ४६
पातिक [सू० ४० ] में प्रशस्त और अप्रशस्त मन तथा वचन विनय के बारह-बारह प्रकार निर्दिष्ट हैं । किन्तु यहां संख्या नियमन के कारण उनके सात भेद प्रतिपादित हैं । कायविनय और लोकोपचार विनय के प्रकार दोनों में समान हैं ।
४६. प्रवचन- निन्हव (सू० १४० )
दीर्घकालीन परंपरा में विचारभेद होना अस्वाभाविक नहीं है। जैन परंपरा में भी ऐसा हुआ है। आमूलचूल विचार परिवर्तन होने पर कुछ साधुओं ने अन्य धर्म को स्वीकार किया, उनका यहाँ उल्लेख नहीं है। यहां उन साधुओं का उल्लेख है जिनका किसी एक विषय में, चालू परंपरा के साथ, मतभेद हो गया और वे वर्तमान शासन से पृथक् हो गए, किन्तु किसी अन्य धर्म को स्वीकार नहीं किया । इसलिए उन्हें अन्य धर्मी नहीं कहा गया, किन्तु जैन शासन के निन्हव [किसी एक विषय का अपलाप करने वाले ] कहा गया है। इस प्रकार के निन्हव सात हुए हैं। इनमें से दो भगवान् महावीर की कैवल्यप्राप्ति के बाद हुए हैं और शेष पाँच निर्वाण के बाद। इनका अस्तित्व काल भगवान् महावीर के कैवल्य प्राप्ति के चौदह वर्ष से निर्वाण के बाद ५८४ वर्ष तक का है। यह विषय आगम - संकलन काल में कल्पसूत्र से प्रस्तुत सूत्र में संक्रान्त हुआ है। उनका विवरण इस प्रकार है
१. बहुरत - भगवान महावीर के कैवल्यप्राप्ति के चौदह वर्ष पश्चात् श्रावस्ती नगरी में बहुरतवाद की उत्पत्ति हुई। इसके प्ररूपक आचार्य जमाली थे।
जमालि कुंडपुर नगर के रहने वाले थे । उनकी माता का नाम सुदर्शना था। वह भगवान् महावीर की बड़ी बहन थीं । जमाली का विवाह भगवान् की ! प्रियदर्शना के साथ हुआ।
वे पांच सौ पुरुषों के साथ भगवान् महावीर के पास दीक्षित हुए। उनके साथ-साथ उनकी पत्नी प्रियदर्शना भी हजार स्त्रियों के साथ दीक्षित हुई । जमाली ने ग्यारह अंग पढ़े। वे अनेक प्रकार की तपस्याओं से अपनी आत्मा को भावित कर विहार करने लगे ।
एक बार वे भगवान् के पास आये और उनसे अलग विहार करने की आज्ञा मांगी। भगवान् मौन रहे । वे भगवान् को वन्दना कर अपने पांच सौ निर्ग्रन्थों को साथ ले अलग विहार करने लगे ।
विहार करते-करते वे एकवार श्रावस्ती नगरी में पहुंचे। वहां तिन्दुक उद्यान के कोष्ठक चैत्य में ठहरे। तपस्या चालू थी। पारणा में वे अन्त-प्रान्त आहार का सेवन करते । उनका शरीर रोगाक्रान्त हो गया । पित्तज्वर से उनका शरीर जलने लगा । वे बैठे रहने में असमर्थ थे । एक दिन घोरतम वेदना से पीड़ित होकर उन्होंने अपने श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाकर कहा - श्रमणो ! बिछौना करो। वे बिछौना करने लगे । पित्तज्वर की वेदना बढ़ने लगी। उन्हें एक-एक पल भारी लग रहा था। उन्होंने पूछा- बिछौना कर लिया या किया जा रहा है।" श्रमणों ने कहा- देवानुप्रिय ! बिछौना किया नहीं, किया
१. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा ७८४ :
णाणुप्पत्तीय दुवे, उप्पण्णा णिव्वुए सेसा ।
२. वही गाथा ७८३, ७८४ :
चोट्स सोलहसवासा, चोट्स वीसुत्तरा य दोण्णिसया । अट्ठावीसा यदुवे, पंचैव सया उ चोयाला । पंचसया चुलसीया
३. आवश्यकभाष्य, गाथा १२५ :
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चउदस वासाणि तया जिणेण उप्पाडियस्स नाणस्सा |
तो बहुरयाणदिट्ठी सावत्थीए समुप्पन्ना ॥
४. कुछ आचार्य यह भी मानते हैं कि ज्येष्ठा, सुदर्शना, अनवद्यांगी- ये सभी नाम जमाली की पत्नी के हैं—अन्येतु व्याचक्षते - ज्येष्ठा सुदर्शना अनवद्यांगीति जमालिगृहिणी नामानि । ( आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०५ । )
५. यहाँ आचार्य मलयगिरि ने घटनाक्रम और सिद्धान्त पक्ष का निरूपण किया है, वह भगवती सूत्र के निरूपण से भिन्न है । उनके अनुसार जमाली ने अपने श्रमणों से पूछा - 'बिछौना किया या नहीं ? श्रमणों ने उत्तर दिया- 'कर दिया।' जमालि उठा और उसने देखा कि बिछोना अभी पूरा नहीं किया गया है। यह देख वह क्रुद्ध हो उठा । उसने सोचा -- क्रियमाण को कृत कहना मिथ्या है। अर्द्धसंस्तृत संस्तारक (बिछौना) असंस्तृत ही है। उसे संस्तृत नहीं माना
जा सकता ।
( आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०२ ।)
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