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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७ : टि०४८
है, जैसे—कोई जीव या पुद्गल नीचे लोक की पूर्व दिशा से च्युत होकर ऊंचे लोक की पश्चिम दिशा में जाता है तो पहलेपहल वह ऋजुगति के द्वारा ऊंचे लोक की पूर्व दिशा में पहुंचता है-समश्रेणी गति करता है। वहां से वह पश्चिम दिशा की ओर जाने के लिए एक घुमाव लेता है।
३. द्वितोवक्रा--जिस श्रेणी में दो घुमाव लेने पड़ते हैं उसे 'द्वितोवक्रा' कहा जाता है। जब जीव ऊंचे लोक के अग्निकोण [पूर्व-दक्षिण में मरकर नीचे लोक के वायव्य कोण [उत्तर-पश्चिम] में उत्पन्न होता है तब वह पहले समय में अग्निकोण से तिरछी-गति कर नैऋत कोण की ओर जाता है। दूसरे समय में वहां से तिरछा होकर वायव्य कोण की ओर जाता है । तीसरे समय में नीचे वायव्य कोण में जाता है । यह तीन समय की गति वसनाड़ी अथवा उसके बाहरी भाग में होती है। पुद्गल की गति भी इसी प्रकार होती है।
__४. एकत:खहा-जब स्थावर जीव वसनाड़ी के बायें पार्श्व से उसमें प्रवेश कर उसके बायें या दाएँ किसी पार्श्व में दो या तीन घुमाव लेकर नियत स्थान में उत्पन्न होता है। उसके वसनाड़ी के बाहर का आकाश एक ओर से स्पृष्ट होता है है इसलिए इसे 'एकत.खहा' कहा जाता है। इसमें भी एकतोवक्रा, द्वितोवक्रा श्रेणी की भांति वक्र गति होती है किन्तु वसनाड़ी की अपेक्षा से इसका स्वरूप उनसे भिन्न है। पुद्गल की गति भी इसी प्रकार की होती है।
५. द्वितःखहा-जब स्थावर जीव वसनाड़ी के किसी एक पार्श्व से उसमें प्रवेश कर उसके बाह्यवर्ती दूसरे पार्श्व में दो या तीन घुमाव लेकर नियत स्थान में उत्पन्न होता है, उसके वसनाड़ी के बाहर का दोनों ओर का आकाश स्पृष्ट होता है इसलिए उसे 'द्वितःखहा' कहा जाता है। पुद्गल की गति भी इसी प्रकार होती है।
६. चक्रवाला—इस आकार में जीव की गति नहीं होती, केवल पुद्गल की ही गति होती है। ७. अर्द्धचक्रवाला।
इन सात श्रेणियों का उल्लेख भगवती २५।३ और ३४।१ में भी मिलता है। ३४।१ में बताया गया है.----ऋजु-आयत श्रेणी में उत्पन्न होने वाला जीव एक सामयिक विग्रहगति से उत्पन्न होता है। एकतोवक्रा श्रेणी में उत्पन्न होने वाला जीव द्वि-सामयिक विग्रहगति से उत्पन्न होता है। द्वितोवका श्रेणी में उत्पन्न होने वाला जीव एक प्रतर में समश्रेणी में उत्पन्न होता है तो वह त्रि-सामयिक विग्रहगति करता है और यदि वह विश्रेणी में उत्पन्न होता है तो चतुःसामयिक विग्रहगति करता है।
एक ओर से वक्र आदि आकारवाली प्रदेशों की पंक्तियां लोक के अन्त में स्थित प्रदेशों की अपेक्षा से हैं। इन सातों श्रेणियों की स्थापना इस प्रकार हैश्रेणी
स्थापना १, ऋजु-आयत २. एकतोवा ३. द्वितोवक्रा ४. एकतःखहा ५. द्वित:खहा ६. चक्रवाला
७. अर्द्धचक्रवाला ४८. विनय (सू० १३०)
विनय का एक अर्थ है—कर्म पुद्गलों का विनयन-विनाश करने वाला प्रयत्न। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञान, दर्शन आदि को विनय कहा गया है, क्योंकि उनके द्वारा कर्म पुद्गलों का विनयन होता है। विनय का दूसरा अर्थ है ---भक्तिबहमान आदि करना। इस परिभाषा के अनुसार ज्ञान-विनय का अर्थ है-ज्ञान की भक्ति-बहुमान करना। तपस्या का पूर्णांग एवं व्यवस्थित निरूपण औपपातिक में मिलता है। वहां ज्ञान-विनय के पांच, दर्शन-विनय के दो, चारित्र-विनय के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। संख्या की असमानता के कारण वे यहाँ निर्दिष्ट नहीं हैं।
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१. ओवाइयं, सून ४०।
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