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ठाणं (स्थान)
७७१
स्थान ७:टि० ४०-४७
४०-४१ (सू० ८२,८३)
समवायांग में संयम और असंयम के सतरह-सतरह प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें से यहां सात-सात प्रकारों का निर्देश है।
४२-४४ (सू० ८४-८६)
प्रस्तुत सूत्रों में---आरंभ, संरंभ और समारंभ- इन तीन शब्दों का उल्लेख है। ये क्रमबद्ध नहीं हैं। इनका क्रम है-संरंभ, समारंभ और आरंभ । वृत्तिकार ने इनका अर्थ इस प्रकार किया है
आरम्भ-वध। संरंभ-वध का संकल्प। समारंभ-परिताप। उत्तराध्ययन २४।२०-२५ तथा तत्त्वार्थ ६८ में इनका क्रमबद्ध उल्लेख है। तत्त्वार्थवार्तिक में इनकी व्याख्या इस प्रकार हैसंरंभ-प्रवृत्ति का संकल्प। समारंभ-प्रवृत्ति के लिए साधन-सामग्री को जुटाना। आरंभ-प्रवृत्ति का प्रारंभ।
४५. (सू०६०)
तीसरे स्थान [ सूत्र १२५] में शाली, ब्रीहि आदि कुछ धान्यों के योनि-विच्छेद का निरूपण किया है। प्रस्तुत सूत्र में उन धान्यों का निरूपण है जिनका योनि-विच्छेद सात वर्षों के पश्चात होता है।
देखें-३।१२५ का टिप्पण।
४६. (सू० १०१)
समवायांग ७७।३ में गर्दतोय और तुषित-दोनों के संयुक्त परिवार की संख्या सतहत्तर हजार बतलाई है। प्रस्तुत सूत्र से वह भिन्न है।
देखें-समवायांग ७७१३ का टिप्पण।
४७. श्रेणियां (सू० ११२)
श्रेणी का अर्थ है-आकाश प्रदेश की वह पंक्ति जिसके माध्यम से जीव और पुद्गलों की गति होती है। जीव और पुद्गल श्रेणी के अनुसार ही गति करते हैं-एक स्थान से दूसरे स्थान में जाते हैं। श्रेणियां सात हैं
१. ऋजु-आयता--जब जीव और पुद्गल ऊंचे लोक से नीचे लोक में और नीचे लोक से ऊंचे लोक में जाते हुए सम-रेखा में गति करते हैं, कोई घुमाव नहीं लेते, उस मार्ग को ऋजु-आयात [सीधी और लंबी] श्रेणी कहा जाता है। इस गति में केवल एक समय लगता है।
२. एकतोवक्रा-आकाश प्रदेश की पंक्तियां श्रेणियाँ-ऋजु ही होती हैं। उन्हें जीव या पुद्गल की घुमावदार गति–एक दिशा से दूसरी दिशा में गमन करने की अपेक्षा से वक्रा कहा गया है। जब जीव और पुद्गल ऋजु गति करतेकरते दूसरी श्रेणी में प्रवेश करते हैं तब उन्हें एक घुमाव लेना होता है इसलिए उस मार्ग को 'एकतोवका श्रेणी' कहा जाता
१. समवायांग, १७२। २. वही, १७१।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८४ ॥ ४. तत्वार्थवार्तिक, पृष्ठ ५१३, ५१४ ।
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