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________________ ठाणं (स्थान) ६३८ प्रस्खलन, प्रपतन-वृत्तिकार ने प्रस्खलन और प्रपतन का भेद समझाते हुए एक प्राचीन गाथा का उल्लेख किया है । उसके अनुसार भूमि पर न गिरना अथवा हाथ या जानु के सहारे गिरना प्रस्खलन है और भूमि पर धड़ाम से गिर पड़ना प्रपतन है । ' क्षिप्तचित्त - राग, भय, मान, अपमान आदि से होने वाला चित्त का विक्षेप । ' दृप्तचित्त - लाभ, ऐश्वर्य, श्रुत आदि के मद से दृप्त अथवा सन्मान तथा दुर्जय शत्रु को जीतने से होने वाला दर्प । यक्षाविष्ट -- पूर्वभव के वर के कारण अथवा राग आदि के कारण देवता द्वारा अधिष्ठित । उन्मादप्राप्त- उन्माद दो प्रकार का होता है (१) यक्षावेश - देवता द्वारा प्राप्त उन्माद । (२) मोहनीय-रूप, शरीर आदि को देखकर अथवा पित्तमूर्च्छा से होने वाला उन्माद । १०३ (सू० १६६) जैन शासन में व्यवस्था की दृष्टि से सात पदों का निर्देश है। उनमें आचार्य और उपाध्याय - दो पृथक् पद हैं। सूत्र के अर्थ की वाचना देने वाले आचार्य और सूत्र की वाचना देने वाले उपाध्याय कहलाते थे। कभी-कभी दोनों कार्य एक ही व्यक्ति संपादित करते थे । स्थान ५ : किसी को अर्थ की वाचना देने के कारण वह आचार्य और किसी दूसरे को सूत्र की वाचना देने के कारण वह उपाध्याय कहलाता था ?' प्रस्तुत सूत्र (१६६) में आचार्य - उपाध्याय के पाँच अतिशेष बतलाए हैं। अतिशेष का अर्थ है --विशेष विधि । व्यवहार सूत्र (६/२) में भी ये पांच अतिशेष निर्दिष्ट हैं। व्यवहार भाष्यकार ने इनका विस्तार से वर्णन करते हुए प्रत्येक अतिशेष के उपायों का निर्देश भी किया है। टि० १०३ १. स्थानांग वृत्ति पत्र ३११ : Jain Education International १. पहला अतिशेष है - बाहर से आकर उपाश्रय में पैरों की धूलि को झाड़ना। धूली को यतनापूर्वक न झाड़ने से होने वाले दोषों का उल्लेख इस प्रकार है (१) प्रमार्जन के समय चरणधूलि तपस्वी आदि पर गिरने से वह कुपित होकर दूसरे गच्छ में जा सकता है। (२) कोई राजा आदि विशेष व्यक्ति प्रब्रजित है उस पर धूल गिरने से वह आचार्य को बुरा-भला कह सकता है। (३) शैक्ष भी धूलि से स्पृष्ट होकर गण से अलग हो सकता है।" २. दूसरा अतिशेष है - उपाश्रय में उच्चार-प्रस्रवण का व्युत्सर्जन और विशोधन करना । आचार्य - उपाध्याय शौचकर्म के लिए एक बार बाहर जाएं। बार-बार बाहर जाने से अनेक दोष उत्पन्न हो सकते (१) जिस रास्ते से आचार्य आदि जाते हैं, उस रास्ते में स्थित व्यापारी लोग आचार्य आदि को देखकर उठते हैं, वन्दन आदि करते हैं। यह देखकर दूसरे लोगों के मन में भी उनके प्रति पूजा का भाव जागृत होता है। आचार्य आदि के "भूमीए असंपत्तं पत्तं वा हत्थजाणुगादीहि । पक्खलणं मायव्वं पवडण भूमीए गतेह ||" २. वही पत्र ३१२ क्षिप्तं नष्टं रागभयापमानैश्चित्तं यस्याः साक्षिप्तचित्ता । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१२ दृप्त सन्मानात् दवच्चित्तं यस्याः सादृप्तचित्ता | ४. वही पत्र ३१२ यक्षेण देवेन आविष्टा- अधिष्ठिता यक्षाविष्टा । For Private & Personal Use Only ५. वही, पत्र ३१२: उम्माओ खलु दुविही जक्खाएसो य मोहणिज्जो य । जक्खाएसो वृत्तो मोहेण इमं तु वोच्छामि ॥। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१३ : आचार्यश्चासावुपाध्यायश्चेत्याचायेंपाध्याय स हि केषाञ्चिदर्थदायकत्वादाचार्योऽन्येषां सूत्रदायकत्वादुपाध्याय इति । ७. व्यवहार, उद्देशक ६, भाष्य गाथा ८३ आदि । www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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