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________________ ठाणं (स्थान) स्थान ५ : टि० १०३ बार-बार बाहर जाने से वे लोग उनको देखते हुए भी नहीं देखने वालों की तरह मुंह मोड़ कर वैसे ही बैठे रहते हैं। यह देख कर अन्य लोगों के मन में भी विचिकित्सा उत्पन्न होती है और वे भी पूजा-सत्कार करना छोड़ देते हैं। (२) लोक में विशेष पूजित होते देख कोई द्वेषी व्यक्ति उनको विजन में प्राप्त कर मार डालता है। (३) कोई व्यक्ति आचार्य आदि का उद्धार करने के लिए जंगल में किसी नपुंसक दासी को भेजकर उन पर झूठा आरोप लगा सकता है। (४) अज्ञानवश गहरे जंगल में चले जाने से अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हो सकती हैं। (५) कोई वादी ऐसा प्रचार कर सकता है कि वाद के डर से आचार्य शौच के लिए चले गए। अरे ! मेरे भय से उन्हें अतिसार हो गया है। चलो, मेरे भय से ये मर न जाएं। मुझे उनसे वाद नहीं करना है। (६) राजा आदि के बुलाने पर, समय पर उपस्थित न होने के कारण राजा आदि की प्रव्रज्या या श्रावकत्व के ग्रहण में प्रतिरोध हो सकता है। (७) सूत्र और अर्थ की परिहानि हो सकती है। ३. तीसरा अतिशेष है---सेवा करने की ऐच्छिकता। आचार्य का कार्य है कि वे सूत्र, अर्थ, मंत्र, विद्या, निमित्तशास्त्र, योगशास्त्र का परावर्तन करें तथा उनका गण में प्रवर्तन करें। सेवा आदि में प्रवृत्त होने पर इन कार्यों में व्याघात आ सकता है। व्यवहार भाष्यकार ने सेवा के अन्तर्गत भिक्षा प्राप्ति के लिए आचार्य के गोचरी जाने, न जाने के संदर्भ में बहुत विस्तृत चर्चा की है। ४. चौथा अतिशेष है---एक-दो रात उपाश्रय में अकेले रहना। सामान्यत: आचार्य-उपाध्याय अकेले नहीं रहते। उनके साथ सदा शिष्य रहते ही हैं। प्राचीन काल में आचार्य पर्वदिनों में विद्याओं का परावर्तन करते थे । अतः एक दिन-रात अकेले रहना पड़ता था अथवा कृष्णा चतुर्दशी अमुक विद्या साधने का दिन है और शुक्ला प्रतिपदा अमुक विद्या साधने का दिन है, तब आचार्य तीन दिन-रात तक अकेले अज्ञात में रहते है। सूत्र में 'वा' शब्द है। भाष्यकार ने 'वा' शब्द से यह भी ग्रहण किया है कि आचार्य महाप्राण आदि ध्यान की साधना करते समय अधिक काल तक भी अकेले रह सकते हैं। इसके लिए कोई निश्चित अवधि नहीं होती। जब तक पूरा लाभ न मिले या ध्यान का अभ्यास पूरा न हो, तब तक वह किया जा सकता है। महाप्राणव्यान की साधना का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का है। चक्रवर्ती ऐसा कर सकते हैं। वासूदेव, बलदेव के वह छह वर्ष का होता है। मांडलिक राजाओं के तीन वर्ष का और सामान्य लोगों के छह मास का होता है। ५. पांचवां अतिशेष है-एक-दो रात उपाश्रय से वाहर अकेले रहना। मन्त्र, विद्या आदि की साधना करते समय जब आचार्य बसति के अन्दर अकेले रहते हैं--तब सारा गण बाहिर रहता है और जब गण अन्दर रहता है तब आचार्य बाहर रहते हैं क्योंकि विद्या आदि की साधना में व्याक्षेप तथा अयोग्य व्यक्ति मंत्र आदि को सुनकर उसका दुरुपयोग न करे, इसलिए ऐसा करना होता है। व्यवहारभाष्य ने आचार्य के पांच अतिशेष और गिनाए हैं। वे प्रस्तुत सूत्रगत अतिशेषों से भिन्न प्रकार के हैं। १ देखें-व्यवहार, उद्देशक ६, भाष्य गाथा-१२३-२२७ । २. पर्व का एक अर्थ है -मास और अर्द्धमास के बीच की तिथि । अर्द्धमास के बीच की तिथि अष्टमी और मास के बीच की तिथि कृष्णा चतुर्दशी को पर्व कहा जाता है। इन तिथियों में विद्याएं साधी जाती है तथा चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के दिनों को भी पर्व माना जाता है। (व्यवहारभाष्य ६।२५२: पक्वत्स अट्ठमी बलु मासस्स य पक्खिों मुणेयव्यं । अण्णपि होइ पव्वं उवरागो चंदसूराणं ।।) ३. व्यवहार, उद्देशक ६, भाष्यगाथा २५५ : बारहवासा भरहाहिवस्स, छच्चेव वासुदेवाणं । तिणि य मंडलियस्स, छम्मासा पागयजणस्स ।। ४. वहीं, भाष्य गाथा २५८: बा अंतो गणी व गणो विक्खेवो मा हु होज्ज अग्गहणं । बसते हि परिखित्तो उ अत्यते कारणे तेहिं ।। ५. वही, भाष्य गाथा २२८ । अन्नेवि अत्थि भणिया, अतिसेसा पंच होति आयरिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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