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________________ ठाणं (स्थान) ६४० ) उत्कृष्टभक्त जो कालानुकूल और स्वभावानुकूल हो वैसा भोजन करना । (२) उत्कृष्टपान- जिस क्षेत्र या काल में जो उत्कृष्ट पेय हो वह देना । है तथा शरीर का सौन्दर्य भी वृद्धिगत होता है ।" आचार्यों के ये अतिशेष इसलिए हैं कि- १. वे तीर्थंकर के संदेशवाहक होते हैं। २. वे (३) वस्त्र प्रक्षालन । ( ४ ) प्रशंसन । (५) हाथ, पैर, नयन, दांत आदि धोना । मुख और दांत को धोने से जठराग्नि की प्रबलता होती है; आँख और पैर धोने से बुद्धि और वाणी की पटुता बढ़ती 'सून और अर्थरूप प्रवचन के दायक होते हैं । Jain Education International ३. उनकी वैयावृत्त्य करने से महान् निर्जरा होती है । ४. वे सापेक्षता के सूत्रधार होते हैं। ५. वे तीर्थ की अव्यवच्छित्ति के हेतु होते हैं।" १०४. ( सू० १६७) १. गणापक्रमण का पहला कारण है--आज्ञा और धारणा का सम्यग् प्रयोग न होना । वृत्तिकार ने इसके उदाहरण स्वरूप कालिकाचार्य का उल्लेख किया है। उनका कथानक इस प्रकार है उज्जैनी नगरी में आर्यकालक विहरण कर रहे थे। वे सूत्र और अर्थ के धारक थे। उनका शिष्य परिवार बहुत बड़ा था । उनके एक प्रशिष्य का नाम सागर था। बह भी सूत्र और अर्थ का धारक था। वह सुवर्णभूमि में विहरण कर रहा था। आर्यकालक के शिष्य अनुयोग सुनना नहीं चाहते थे। आचार्य ने उन्हें अनेक प्रकार से प्रेरणाएँ दीं, परन्तु वे इस ओर प्रवृत्त नहीं हुए। एक दिन आचार्य ने सोचा- 'मेरे ये शिष्य अनुयोग सुनना नहीं चाहते । अतः इनके साथ मेरे रहने से क्या लाभ हो सकता है ? मैं वहाँ जाऊँ, जहाँ अनुयोग का प्रवर्तन हो सके। एक बार मैं इन्हें छोड़कर चला जाऊँगा तो इन्हें भी अपनी प्रवृत्ति पर पश्चात्ताप होगा और सम्भव है इसके मन में अनुयोग श्रवण के प्रति उत्सुकता उत्पन्न हो जाए ।' आचार्य शय्यार को बुलाकर कहा- 'मैं अन्यत्र कहीं जाना चाहता हूँ । शिष्यों के पूछने पर तुम उन्हें कुछ भी मत बताना। जब ये तुम्हें बार-बार पूछें और विशेष आग्रह करें तो तुम उनकी भर्त्सना करते हुए कहना कि आचार्य अपने प्रशिष्य सागर के पास सुवर्णभूमि में चले गए हैं। शय्यातर को यह बात बताकर आचार्य कालक रात में ही वहाँ से चल पड़े । सुवर्णभूमि में पहुँचे । वे आचार्य सागर के गण में रहने लगे। १. व्यवहार, उद्देशक ६, भाष्य गाथा २३७ : स्थान ५ : २. दूसरा कारण है - वंदन और विनय का सम्यक् प्रयोग न कर सकना । जैन परम्परा की गण-व्यवस्था में आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। वे वय, श्रुत और दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ हों ही, ऐसा नियम नहीं है । अत: उनका यह कर्त्तव्य है कि वे प्रतिक्रमण तथा क्षमायाचना के समय उचित विनय का प्रवर्तन करें। पर्याय स्थविर तथा श्रुत स्थविर हैं उनका वन्दन आदि से सम्मान करें। यदि वे अपनी आचार्य सम्पदा के अभिमान से ऐसा नहीं कर पाते तो वे गण से अपक्रमण कर देते हैं । ३. यदि आचार्य यह जान ले कि उनका शिष्य वर्ग अविनीत हो गया है, अतः सुख-सुविधाओं का अभिलाषी बन गया है, मन्द- प्रज्ञा वाला है---ऐसी स्थिति में अपने द्वारा श्रुत का उन्हें अध्यापन करना सहज नहीं है, तब से गणापक्रमण कर देते मुखनयणदंतपायादि धोवणे को गुणोत्ति ते बुद्धी । अग्गि मतिवाणिपया तो होइ अणोतप्पया चेव ।। टि० १०४ २. वही, भाष्य गाथा १२२ । ३. पूरे विवरण के लिए देखें For Private & Personal Use Only बृहत् कल्प भाग १, पृष्ठ ७३, ७४ । www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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