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________________ ठाणं (स्थान) ६४१ स्थान ५ : टि० १०५-१०७ हैं। यह वृत्तिसम्मत अर्थ है, किन्तु पाठ की शब्दावली से यह अर्थ ध्वनित नहीं होता। इसकी ध्वनि यह है आचार्य उपाध्याय अपने प्रमाद आदि कारणों से सूत्रार्थं की समुचित ढंग से वाचना न देने पर गणापक्रमण के लिए बाध्य हो जाते हैं । ४. जब आचार्य अपने निकाचित कर्मों के उदय के कारण अपने गण की या दूसरे गण की साध्वी में आसक्त हो जाते हैं तो वे गण छोड़कर चले जाते हैं। अन्यथा प्रवचन का उड्डाह होता है। साधारणतया आचार्य की ऐसी स्थिति नहीं आती, किन्तु - 'कम्माई नूणं घणचिक्कणाई गरुयाई वज्जसाराई । नाणड्डूयंपि पुरिसं पंथाओ उप्पहं निति ॥।' - जिस व्यक्ति के कर्म सघन, चिकने ओर वज्र की भांति गुरुक हैं, ज्ञानी होने पर भी, उसको वे पथच्युत कर देते हैं । ५. जब आचार्य यह देखें कि उनके सगे-सम्बन्धी किसी कारणवश गण से अलग हो गए हैं तो उन्हें पुनः गण में सम्मिलित करने के लिए तथा उन्हें वस्त्र आदि का सहयोग देने के लिए स्वयं गण से अपक्रमण करते हैं और अपना प्रयोजन सिद्ध होने पर पुनः गण में सम्मिलित हो जाते हैं । ' १०५. ( सू० १६८) सामान्यतः ऋद्धि का अर्थ है - ऐश्वर्य, सम्पदा । प्रस्तुत सूत्र में उसका अर्थ है- योगविभूतजन्य शक्ति । जो इससे सम्पन्न है, उसे ऋद्धिमान कहा गया है। वृत्तिकार ने अनेक योग - शक्तियों का नामोल्लेख किया है। १. आमर्षौषधि, २. विप्रुडोषधि, ३. क्ष्वेलौषधि, ४. जल्लोषधि, ५. सर्वोषधि, ६. आसीविषत्व - शाप और वर देने का सामर्थ्यं । ७. आकाशगामित्व, ८. क्षीणमहानसिकत्व, ६. वैक्रियकरण, १०. आहारकलब्धि, ११. तेजोलब्धि, १२. पुलाकलब्धि, १३. क्षीराश्रवलब्धि, १४. मध्वाश्रवलब्धि, १५. सर्पिराश्रवलब्धि, १६. कोष्ठबुद्धिता, १७. बीजबुद्धिता, १८. पदानुसारिता, १६. संभिन्न श्रोतोलब्धि – एक साथ सभी शब्दों को सुनना । २०. पूर्वधरता, २१. अवधिज्ञान, २२. मनः पर्यवज्ञान, २३. केवलज्ञान, २४. अर्हत्व, २५. गणधरता, २६. चक्रवर्तित्व, २७ वलदेवत्व, २८. वासुदेवत्व आदि-आदि। ये लब्धियाँ या पद कर्मों के उदय, क्षय, उपशम, क्षयोपशम से प्राप्त होते हैं । प्रस्तुत सूत्र में पांच प्रकार के ऋद्धिमान् पुरुषों का उल्लेख है । उनमें प्रथम चार की ऋद्धिमत्ता, उनकी विशेष लब्धियाँ तथा तत्-तत् पद की अर्हता से है । भावितात्मा अनगार की ऋद्धिमत्ता केवल आमर्षों पधि आदि विभिन्न प्रकार की योगजन्य लब्धियों से है । जिसकी आत्मा अभय, सहिष्णुता आदि भावनाओं तथा अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं तथा प्रमोद आदि चार भावनाओं से भावित होती है, उसे भावितात्मा अनगार कहा जाता है। १०६, १०७. ( सू० १७८, १७६ ) प्रस्तुत दो सूत्रों में अधोलोक और ऊर्ध्वलोक में पाँच-पाँच प्रकार के वादर जीवों का निर्देश है। इनमें तेजस्कायिक जीवों का उल्लेख नहीं है । वृत्तिकार ने बताया है कि अधोलोक के ग्रामों में बादरतेजस् की अत्यन्त न्यूनता होती है। अतः उसकी विवक्षा नहीं की गई है। सामान्यतः वह तिर्यग्लोक में ही उत्पन्न होता है। विशेष विवरण के लिए देखें- प्रज्ञापना पद दो, मलयगिरिवृत्ति । १ स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१५ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१५ । Jain Education International ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१६ : एतेषां च ऋद्धिमत्त्वमामर्षो षध्यादिभिरर्हदादीनां तु चतुर्णा यथासम्भवमामर्षी षध्यादिनाऽहंत्त्वादिना चेति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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