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३. स्यात् अवक्तव्य एव जीव:-अस्तित्व और नास्तित्व-दोनों एक साथ नहीं कहे जा सकते। इस अपेक्षा से जीव अवक्तव्य ही है।
४. स्यात् अस्त्येव जीवः, स्यात् नास्त्येव जीवः-अस्तित्व और नास्तित्व की क्रमिक विवक्षा से जीव है ही और नहीं ही है।
इस प्रकार अस्तित्व धर्म की प्रधानता और अवक्तव्य, नास्तित्व धर्म की प्रधानता और अवक्तव्य तथा अस्तित्व और नास्तित्व की क्रम-विवक्षा और अवक्तव्य-ये तीन सांयोगिक भंग बनते हैं। इस सप्तभंगी से निरूपित होने के कारण जीव सात विकल्प वाला है।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि आठ कर्मों से युक्त होने के कारण जीव आठ विकल्प वाला है।
पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियइन विविध कार्यों में उत्पत्तिशील होने के कारण वह नौ प्रकार का है। वनस्पतिकाय के दो विकल्प होते हैं-साधारण वनस्पति- काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय । उक्त आठ स्थानों तथा द्विविध वनस्पतिकाय में उत्पत्तिशील होने के कारण वह दश प्रकार का है। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में संख्यात्मक दृष्टिकोण से जीव, अजीव आदि द्रव्यों की स्थापना की गई है।
प्रस्तुत सूत्र में भूगोल, खगोल तथा नरक और स्वर्ग का भी विस्तृत वर्णन है। इसमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य भी उपलब्ध होते हैं। बौद्धपिटकों में जो स्थान अंगुत्तरनिकाय का है वही स्थान अंग-साहित्य में प्रस्तुत सूत्र का है।
प्रस्तुत सूत्र में संख्या के आधार पर विषय संकलित हैं, अतः यह नाना विषय वाला है। एक विषय का दूसरे विषय से सम्बन्ध नहीं खोजा जा सकता। द्रव्य, इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, आचार, मनोविज्ञान, संगीत आदि विषय किसी क्रम के बिना पाठक के सम्मुख प्रस्तुत होते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में केशी-गौतम का एक संवाद-प्रकरण है। केशी ने गौतम से पूछा-"जो चातुर्याम-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और जो यह पंच-शिक्षात्मक-धर्म है उसका प्रतिपादन महामुनि वर्धमान ने किया है। एक ही उद्देश्य के लिए हम चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? मेधाविन् ! धर्म के इन दो प्रकारों में तुम्हें सन्देह कैसे नहीं होता?"२ केशी के प्रश्न की पृष्ठभूमि में जो तथ्य है उसका स्पष्टीकरण प्रस्तुत सूत्र में मिलता है। चतुर्थ स्थान के एक सूत्र में यह निरूपित है-भरत और ऐरवत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम को छोड़कर शेष बाईस अर्हन्त भगवान् चातुर्याम धर्म का उपदेश देते हैं। वह इस प्रकार है
सर्व प्राणातिपात से विरमण करना। सर्व मृषावाद से विरमण करना। सर्व अदत्तादान से विरमण करना। सर्व बाह्य-आदान से विरमण करना।
प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र धारण के तीन प्रयोजन बतलाए गए हैं-लज्जानिवारण, जुगुप्सानिवारण और शीत आदि से बचाव । वस्त्र का विधान होने पर भी वस्त्र-त्याग को प्रशंसनीय बतलाया गया है। पांचवें स्थान में कहा है-पांच कारणों से निर्वस्त्र होना प्रशस्त है-१. उसके प्रतिलेखना अल्प होती है। २. उसका लाघव प्रशस्त होता है। ३. उसका
१. कसायपाहुड, भाग १, पृष्ठ १२३ :
एक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणिओ। चदुसंकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य॥६४॥ छक्कायक्कमजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगिसब्भावो।
अट्ठासवो णवट्ठो जीवो दसट्ठाणिओ भणिओ ॥६५॥ २. उत्तरज्झयणाणि, २३३२३,२४॥ ३. ठाणं, ४११३६,१३७। ४. ठाणं, ३१३४७ ।
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