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________________ ( १७ ) रूप (वेष ) वैश्वासिक होता है । ४. उसका तप अनुज्ञात – जिनानुमत होता है । ५. उसके विपुल इन्द्रिय - निग्रह होता है ।" भगवान् महावीर के समय में श्रमणों के अनेक संघ विद्यमान थे। उनमें आजीवकों का संघ बहुत शक्तिशाली था । वर्तमान में उसकी परंपरा विच्छिन्न हो चुकी है। उसका साहित्य भी लुप्त हो चुका है। जैन साहित्य में उस परम्परा के विषय में कुछ जानकारी मिलती है। प्रस्तुत सूत्र में भी आजीवकों की तपस्या के विषय में एक उल्लेख मिलता है ।" प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के समकालीन और उत्तरकालीन- दोनों प्रकार के प्रसंग और तथ्य संकलित हैं । जहां धर्म का संगठन होता है वहाँ व्यवहार होता है। जहां व्यवहार होता है वहां विचारों की विविधता भी होती है । विचारों की विविधता और स्वतन्त्रता का इतिहास नया नहीं है । भगवान् महावीर के समय में भी जमालि ने वैचारिक भिन्नता प्रदर्शित की थी। उनकी उत्तरकालीन परम्परा में भी वैचारिक भिन्नता प्रकट करने वाले कुछ व्यक्ति हुए। ऐसे सात व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। उन्हें निन्हव कहा गया है। उनके नाम इस प्रकार हैं- जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल । इसी प्रकार नौवें स्थान में भगवान् महावीर के नौ गणों का उल्लेख है । उनके नाम इस प्रकार हैं—गोदासगण, उत्तरबलि सहगण, उद्देहगण, चारणगण, उद्दवाइयगण, विस्सवाइयगण, कामड्डियगण, माणवगण, कोडियगण । * ये सब भगवान् महावीर के निर्वाण के उत्तरकालीन हैं। इन उत्तरवर्ती तथ्यों का आगमों के संकलन - काल में समावेश किया गया। प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान-मीमांसा का भी लंबा प्रकरण मिलता है। इसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो भेद किए गए हैं। प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं— केवलज्ञान और नो- केवलज्ञान - अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान । परोक्ष ज्ञान के दो प्रकार हैं-आभिनिबोधिज्ञान और श्रुतज्ञान।' भगवती सूत्र में ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये विभाग नहीं हैं। ज्ञान के पाँच प्रकारों का वर्गीकरण प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो विभागों में होता है । यह विभाग नंदी सूत्र में तथा उत्तरवर्ती समग्र प्रमाण व्यवस्था में समादृत हुआ है । रचनाकार अंगों की रचना गणधर करते हैं। इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि गणधरों के द्वारा जो ग्रन्थ रचे गए उनकी संज्ञा अंग है। उपलब्ध अंग सुधर्मास्वामी की बाचना के हैं । सुधर्मास्वामी भगवान् महावीर के अनन्तर शिष्य होने के कारण उनके समकालीन हैं, इसलिए प्रस्तुत सूत्र का रचनाकाल ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी है । आगम-संकलन के समय अनेक सूत्र संकलित हुए हैं। इसलिए संकलन - काल की दृष्टि से इसका समय ईसा की चौथी शताब्दी है । कार्य संपूति- प्रस्तुत आगम की समग्र निष्पत्ति में अनेक मुनियों का योग रहा है। उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं कि उनकी कार्यशक्ति और अधिक विकसित हो । इसकी निष्पत्ति का बहुत कुछ श्रेय शिष्य मुनि नथमल को है क्योंकि इस कार्य में अर्हनश वे जिस मनोयोग से लगे हैं, उसी से यह कार्य सम्पन्न हो सका है। अन्यथा यह गुरुतर कार्य बड़ा दुरूह होता। इनकी वृत्ति मूलतः योगनिष्ठ होने से मन की एकाग्रता सहज बनी रहती है। आगम का कार्य करते-करते अन्तर्रहस्य पकड़ने में इनकी मेधा १. ठाण ५२०१ । २. ठाणं ४३५० । ३. ठाणं, ७।१४० । ४. ठाणं २६ । ५. ठाणं २६६, ८७ । ६. ठाणं, २।१०० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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