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________________ ४५ ठाणं (स्थान) स्थान २: सूत्र ५६-६३ ५६. दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलेन संय- ५६. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, मेन संयच्छेत्, तद्यथा-- को जानकर और छोडकर आत्मा सम्पूर्ण तं जहा संयम के द्वारा संयत होता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ५७. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलेन संव- ५७. आरम्भ और परिग्रह--इन दो स्थानों केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, रेण संवृणुयात्, तद्यथा को जानकर और छोडकर आत्मा सम्पूर्ण तं जहा संवर के द्वारा संवृत होता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ५८. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय. आत्मा केवलं ५८. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पा- आभिनिबोधिकज्ञानं उत्पादयेत् । जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध डेज्जा, तं जहातद्यथा आभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव । ५६. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय प्रात्मा केवलं श्रुत- ५६. आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, ज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथा को जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध तं जहा श्रुतज्ञान को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव।। ६०. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलं ६०. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा, अवधिज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथा को जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध तं जहा अवधिज्ञान को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव । ६१. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलं मन:- ६१. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा पर्यवज्ञानं उत्पादयेत, तदयथा को जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध तं जहा मनःपर्यवज्ञान को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव । ६२. दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलं ६२. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं केवलणाणं उप्पाडेज्जा. केवलज्ञानं उत्पादयेत, तद्यथा को जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध तं जहा केवलज्ञान को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव । सोच्चा-अभिसमेच्च-पदं श्रुत्वा-अभिसमेत्य-पदम् श्रुत्वा-अभिसमेत्य-पद ६३. दोहि ठाणेहिं आया केवलिपण्णत्तं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां प्रात्मा केवलिप्रज्ञप्तं ६३. सुनने और जानने-इन दो स्थानों से धम्मं लभेज्ज सवणयाए, तं जहा- धर्म लभेत श्रवणतया, तद्यथासोच्चच्चेव, अभिसमेच्चच्चैव। श्रुत्वा चैव, अभिसमेत्य चैव। आत्मा केवलीप्रज्ञप्त धर्म को सुन पाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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