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________________ ठाणं (स्थान) ४४ स्थान २: सूत्र ४८-५५ णो केवलमाभिणिबोहियणाणं आभिनिबोधिकज्ञानं उत्पादयेत्, जाने और छोडे बिना आत्मा विशुद्ध उप्पाडेज्जा, तं जहातद्यथा आभिनिबोधिकज्ञान को प्राप्त नहीं करता। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ४८. दो ठाणाइंअपरियाणेत्ता आया णो द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलं ४८. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, श्रुतज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथा को जाने और छोडे बिना आत्मा विशुद्ध तं जहा श्रुतज्ञान को प्राप्त नहीं करता। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ४६. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलं ४६. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों णो केवलं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा, अवधिज्ञानं उत्पादयेत् तद्यथा को जाने और छोडे बिना आत्मा विशुद्ध तं जहा अवधिज्ञान को प्राप्त नहीं करता। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चै, परिग्रहांश्चैव । ५०. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलं ५०. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों णो केवलं मणपज्जवणाणं उप्पा- मनःपर्यवज्ञानं उत्पादयेत्, तद्यथा- को जाने और छोडे बिना आत्मा विशुद्ध डेज्जा, तं जहा मनःपर्यवज्ञान को प्राप्त नहीं करता। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भाश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ५१. दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया द्वे स्थाने अपरिज्ञाय आत्मा नो केवलं ५१. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों जो केवलं केवलणाणं उप्पाडेज्जा, केवलज्ञानं उत्पादयेत, तद यथा को जाने और छोडे बिना आत्मा विशुद्ध तं जहा केवलज्ञान को प्राप्त नहीं करता। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव । आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव । ५२. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलिप्रज्ञप्तं ५२. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज धर्म लभेत श्रवणतया, तद्यथा- को जानकर और छोडकर आत्मा केवलीसवणयाए, तं जहा प्रज्ञप्त धर्म को सुन पाता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। ५३. 'दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय प्रात्मा केवलां बोधि ५३. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं बोधि बुझज्जा, तं जहा- बुध्येत, तद्यथा को जानकर और छोडकर आत्मा विशुद्ध आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। बोधि का अनुभव करता है। ५४. दो ठाणाइं परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलं मुण्डो ५४. आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को केवलं मुंडे भवित्ता अगारामो भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजेत्, जानकर और छोडकर आत्मा मुंड होकर, अणगारियं पब्वइज्जा, तं जहा- तद्यथा घर छोडकर सम्पूर्ण अनगारिता(साधुपन) आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव। को पाता है। ५५. दो ठाणाई परियाणेत्ता आया द्वे स्थाने परिज्ञाय आत्मा केवलं ५५ .आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों को केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, ब्रह्मचर्यवासमावसेत्, तद्यथा जानकर और छोड़कर आत्मा सम्पूर्ण तं जहा ब्रह्मचर्यवास को प्राप्त करता है। आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। आरम्भांश्चैव, परिग्रहांश्चैव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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