SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1000
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) ६५६ स्थान १०: टि०७ एक बार सुनंदा ने उस बालक को मांगा। शय्यातर ने उसे देने से इन्कार करते हुआ कहा कि यह हमारी धरोहर है। इसे हम नहीं दे सकते। वह प्रतिदिन आती और अपने पुत्र को स्तनपान कराकर चली जाती। इस प्रकार तीन वर्ष बीत गए। ___एक बार मुनि धनगिरि विहार करते हुए वहां आए। सुनंदा के मन में पुत्र-प्राप्ति की लालसा तीव्र हुई। वह राजसभा में गई और अपने पुत्र को पुनः दिलाने की प्रार्थना की। राजा ने धनगिरि को बुला भेजा। उसने कहा-'इसीने मुझे दान में दिया था। सारे नगर ने सुनंदा का पक्ष लिया। राजा ने कहा-'मेरा कौन अपना है और कौन पराया ? मेरे लिए सब समान हैं । बालक जिसके पास चला जाए, वह उसीका हो जाएगा। सबने यह बात मान ली। प्रश्न उठा कि पहले कौन बुलायेगा ? किसी ने कहा कि धर्म पुरुषोत्तम होता है अत: पुरुष ही पहले पुकारेगा। किसी ने कहा-नहीं, माता दुष्करकारिणी होती है, अतः उसी का यह अधिकार होना चाहिए। माता सुनंदा ने बालक को प्रलोभित करने के लिए कुछेक खिलौनों को दिखाते हुए कहा-'वन ! आ, इधर आ !' बालक ने माता की ओर देखा, किन्तु उस ओर पैर नहीं बढ़ाए। माता ने तीन बार उसे पुकारा, वह नहीं आया। तब पिता मुनि धनगिरि ने कहा- 'वज्र ! ले, कर्मरज का प्रमार्जन करने के लिए यह रजोहरण ग्रहण कर । बालक दौड़ा और रजोहरण हाथ में ले लिया। राजा ने मुनि धनगिरि को बालक सौंप दिया। उसकी विजय हुई। सुनंदा ने सोचा-मेरे पति, भाई और पुन- 'सभी प्रव्रजित हो गए हैं, तो भला मैं घर में क्यों रहूं।' वह भी प्रवजित हो गई। अब बालक वज्र उसके पास रहने लगा।' ७. (सूत्र १६) पांचवें स्थान में दो सूत्रों (३४-६५) में दस धर्मों का उल्लेख मिलता है। वहाँ वृत्तिकार से उनका अर्थ इस प्रकार किया है १. क्षांति-क्रोधनिग्रह। २. मुक्ति-लोभनिग्रह। ३. आर्जव-मायानिग्रह। ४. मार्दव-माननिग्रह। ५. लाघव-उपकरण की अल्पता; ऋद्धि, रस और सात-इन तीनों गौरवों का त्याग । ६. सत्य-काय-ऋजुता, भाव-ऋजुता, भाषा-ऋजुता और अविसंवादनयोग-कथनी-करनी की समानता। ७. संयम-हिंसा आदि की निवृत्ति । ८. तप। १. त्याग—अपने सांभोगिक साधुओं को भक्त आदि का दान। १०. ब्रह्मचर्यवास-कामभोग विरति । १. वृत्तिकार ने दस धर्म की एक दूसरी परम्परा का उल्लेख किया है। यह तत्त्वार्थसूत्रानुसारी परम्परा है। उसके अनुसार दस धर्म के नाम और क्रम में कुछ अन्तर है। १. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ३८७, ३८८ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्न २८२, २८३ । ३. वही, पन्न २८३ : "रवंती य मद्दवऽज्जव मुत्ती तवसंजमे व बोद्धब्वे । सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy