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________________ ठाणं (स्थान) ६६० स्थान १०:टि०७ १. उत्तम क्षमा, २. उत्तम मार्दव, ३. उत्तम आर्जव ४. उत्तम शौच, ५. उत्तम सत्य, ६. उत्तम संयम, ७. उत्तम तप, ८. उत्तम त्याग, ६. उत्तम आकिञ्चन्य, १०. उत्तम ब्रह्मचर्य । तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार इनकी व्याख्या इस प्रकार है१. क्षमा-क्रोध के निमित्त मिलने पर भी कलुष न होना। शुभ परिणामों से क्रोध आदि की निवृत्ति ।' २. मार्दव-जाति, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ आदि का मद नहीं करना; दूसरे के द्वारा परिभव के निमित उपस्थित करने पर भी अभिमान नहीं करना। ३. आर्जव-मन, वचन और काया की ऋजुता। ४. शौच-लोभ की अत्यन्त निवृत्ति। लोभ चार प्रकार का है-जीवनलोभ, आरोग्यलोभ, इन्द्रियलोभ और उपभोगलोभ । लोभ के तीन प्रकार और हैं-(१) स्वद्रव्य का अत्याग (२) परद्रव्य का अपहरण (३) धरोहर की हड़प। ५. सत्य। ६. संयम-प्राणीपीड़ा का परिहार और इन्द्रिय-विजय। संघम के दो प्रकार हैं-(१) उपेक्षासंयम--रागद्वेषात्मक चित्तवृत्ति का अभाव। (२) अपहृत संयम-भावशुद्धि, कायशुद्धि आदि । ७. तप। ८. त्याग-सचित्त तथा अचित परिग्रह की निवृत्ति । ६. आकिञ्चन्य-शरीर आदि सभी बाह्य वस्तुओं में ममत्व का त्याग । १०. ब्रह्मचर्य-कामोत्तेजक वस्तुओं तथा दृश्यों का वर्णन तथा गुरु की आज्ञा का पालन ।' आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित 'द्वादशानुप्रेक्षा' के अन्तर्गत 'धर्म अनुप्रेक्षा' में इन दस धर्मों की व्याख्याएँ प्राप्त हैं। वे उपर्युक्त व्याख्याओं से यत्र-तत्र भिन्न हैं। वे इस प्रकार हैं १. क्षमा-क्रोधोत्पत्ति के बाह्य कारणों के प्राप्त होने पर भी क्रोध न करना। २. मार्दव-कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शील का गर्व न करना। ३. आर्जव-कुटिलभाव को छोड़कर निर्मल हृदय से प्रवृत्ति करना। ४. सत्य - दूसरों को संताप देने वाले वचनों का त्याग कर, स्व और पर के लिए हितकारी वचन बोलना ५. शौच-कांक्षाओं से निवृत्त होकर वैराग्य में रमण करना। ६. संयम-व्रत तथा समितियों का यथार्थ पालन, दण्ड-त्याग तथा इन्द्रिय-जय । ७. तप-विषयों तथा कषायों का निग्रह कर अपनी आत्मा को ध्यान और स्वाध्याय से भाबित करना। ८. त्याग—आसक्ति को छोड़कर पदार्थों के प्रति वैराग्य रखना। ६. आकिञ्चन्य—निस्संग होकर अपने सुख-दुःख के भावों का निग्रह कर निर्द्वन्द्व रूप से विहरण करना। १. तत्त्वार्थवातिक पृष्ठ ५२३ । २. वही, पृष्ठ ५२३ । ३. बही, पृष्ठ ५६५-६०० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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