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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि०६
वह प्रतिदिन रत्नों से भरा थाल राजा के पास भेजता रहा। एक दिन अमात्य अभयकुमार ने पूछा- ये इतने रत्न कहां से आए हैं ? उसने कहा- 'मेरे घर एक बकरा है। वह प्रतिदिन इतने रत्न देता है।' अभयकुमार ने उसे मंगवाया, किन्तु उस बकरे ने वहां गोबर के मिंगने दिए। अभयकुमार ने उसका कारण पूछा, तब मेतार्य ने कहा - 'यह देव प्रभाव से सोने की मिगनिएं देता है। यदि आपको विश्वास न हो तो और परीक्षा कर सकते हैं ।'
अभयकुमार ने कहा - 'हमारे महाराज प्रतिदिन वैभारगिरि पर्वत पर भगवत् वंदन के लिए जाते हैं। उन्हें बड़ी कठिनाइयों से पर्वत पर चढ़ना पड़ता है। अतः ऊपर तक रथ-मार्ग का निर्माण करा दे ।'
तार्य ने अपने देवमित्र से वैसा ही रथ-मार्ग बनवा दिया। (आज भी उसके अवशेष मिलते हैं ।)
दूसरी बार अभयकुमार ने कहा- 'राजगृह नगर के परकोटे को सोने का बनवाओ।' मेतार्य ने वह भी कार्य पूरा
कर डाला ।
तीसरी बार अभयकुमार ने कहा- 'मेतार्य ! अब तुम यहां एक समुद्र लाकर उसमें स्नान कर शुद्ध हो जाओगे तो राजकुमारी को हम तुम्हें सौंप देंगे ।'
देव-प्रभाव से मेतार्य इसमें भी सफल हुआ। राजकुमारी के साथ उसका विवाह संपन्न हुआ। वह अपनी नवोढा पत्नी के साथ शिविका में बैठ कर नगर में गया।
राजकन्या के साथ मेतार्य के परिणय की वार्ता सारे शहर में फैल गई। अब आठ कन्याओं के पिताओं ने भी यह सुना और अपनी-अपनी कन्या पुनः देने का प्रस्ताव किया। मेतार्य ने उन सब कन्याओं के साथ विवाह कर लिया ।
बारह वर्ष बीत गए। देवमित्र आया और प्रव्रजित होने की प्रेरणा दी।
तार्य की सभी पत्नियों ने देव से अनुरोध किया कि और बारह वर्ष तक इनका सहवास रहने दें। देव उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर चला गया ।
बारह वर्ष और बीत जाने पर मेतार्य अपनी सभी पत्नियों के साथ प्रव्रजित हो गया।'
१०. पुत्र के अनुबंध से ली जाने वाली प्रव्रज्या
अवंती जनपद में तुंबवन नाम का गांव था। वहां धनगिरि नाम का इभ्यपुत्र रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुनन्दा था। जब वह गर्भवती हुई तब धनगिरि आर्य सिंहगिरि के पास दीक्षित हो गया। नौ मास पूर्ण होने पर सुनन्दा ने एक बालक को जन्म दिया। बालक को देखने के लिए आगत कुछ महिलाओं ने कहा- 'कितना अच्छा होता यदि इस बालक के पिता दीक्षित नहीं होते ।' बालक (जिसका नाम वज्र रखा गया था) ने यह सुना और वह उन्हीं वाक्यों को बार-बार स्मरण करने लगा। ऐसा करने से उसे जाति-स्मृतिज्ञान उत्पन्न हुआ । वह अपने पूर्वभव को देखकर रोने लगा और रात-दिन खूब रोते ही रहता । माता इससे बहुत कष्ट पाने लगी। छह महीने बीत गए ।
एक बार मुनि धनगरि तथा आर्यसमित उसी नगर में आए और भिक्षा मांगने निकले। वे सुनंदा के घर आए । सुनंदा ने कहा- इस बालक को ले जाओ।' मुनि उसे लेना नहीं चाहते थे। तब सुनंदा ने पुनः कहा- 'इतने समय तक मैंने इस बालक की रक्षा की है. अब आप इसकी रक्षा करें।' मुनि ने कहा- कहीं तुम्हें बाद में पश्चात्ताप न करना पड़े ? सुनंदा ने कहा- नहीं ! आप इसे ले जाएं। मुनि ने साक्ष्यकर उस छह महीने के बालक को ले लिया और अपने पात्र में रख चोलपट्ट से बांध दिया। बालक ने रोना बंद कर दिया।
मुनि धनगिरि उपाश्रय में आए। झोली को भारी देखकर आचार्य ने हाथ पसारा । धनगिरि ने झोली आचार्य के हाथ थमा दी। अति भारी होने के कारण आचार्य ने कहा- अरे ! यह तो वज्र जैसा भारी-भरकम है। आचार्य ने झोली खोली और देवकुमार सदृश सुन्दर बालक को देखकर कहा- 'आर्यो ! इस बालक की रक्षा करो। यह प्रवचन का प्रभावक होगा ।'
अत्यन्त भारी होने के कारण बालक का नाम वज्र रखा और साध्वियों को सौंप दिया। साध्वियों ने उस बालक को शय्यातर के घर रखा और वे शय्यातर उसका भरण-पोषण करने लगे ।
१. आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४७७, ४७८ ।
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