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________________ ठाणं (स्थान) ९५७ स्थान १० : टि०६ नंदिषेण बहुत कुरूप था । अतः तीनों पुत्रियों ने उसके साथ विवाह करने से इन्कार कर दिया। नंदिषेण को यह बहुत बुरा लगा। ऐसे तिरस्कृत जीवन से मरना अच्छा है'--ऐसा सोचकर वह घर से निकला और आत्महत्या करने के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। उस समय उसका संपर्क एक मुनि से हुआ। उन्होंने उसके विचार परिवर्तित किए और वह नंदीवर्द्धन सूरी के पास प्रबजित हो गया। ६. देवता के प्रतिबोध से ली जाने वाली प्रव्रज्या इस विषय में मुनि मेतार्य की कथा प्रसिद्ध है। मेतार्य पूर्व भव में पुरोहित पुत्र थे। उनकी राजपुत्र के साथ मैत्री थी। राजपुत्र के चाचा सागरचन्द्र प्रवजित हो चुके थे । सागरचन्द्र ने दोनों-राजपुत्र और पुरोहित पुत्र को कपट से प्रवजित कर दिया। राजपुत्र ने यह सोचकर इस कपट को सहन कर लिया कि चलो, ये मेरे चाचा ही तो हैं। किन्तु पुरोहित पुत्र के मन में आचार्य सागरचन्द्र के प्रति बहुत दुगुंछा पैदा हो गई। एक बार दोनों मित्रों ने आपस में यह प्रतिज्ञा की कि जो देवलोक से च्यूत होकर पहले मर्त्यलोक में जाएगा, उसे प्रतिबोध देने का कार्य दुसरे को करना होगा। दोनों मर कर देव बने । पुरोहित पुत्र का जीव देवलोक से पहले च्युत हुआ और राजगृह नगर के मेय चांडाल की पत्नी के गर्भ में आया। चांडाल की स्त्री की मंत्री एक सेठानी के साथ थी। वह नगर में मांस बेचने के लिए जाया करती थी। एक दिन सेठानी ने कहा-बहिन ! तु अन्यत्र मत जा । मैं ही सारा मांस खरीद लंगी। चांडालिनी प्रतिदिन वहां आती और मांस देकर चली जाती। दोनों की मंत्री सघन होती गई। सेठानी भी गर्भवती थी। किन्तु उसके सदा मृत संतान ही उत्पन्न होती थी। इस बार भी उसने एक मृत कन्या का प्रसव किया। इधर चांडालिनी ने पुत्र का प्रसव किया। सेठानी ने अपनी मृत पुत्री उसे दी और उसका पुत्र ले लिया। अति प्रेम के कारण चांडालिनी ने कुछ भी आनाकानी नहीं की। सेठानी ने बच्चे को लेकर चांडालिनी के पैरों पर रखते हुए कहातेरे प्रभाव से यह जीवित रहे। उसका नाम मेतार्य रखा। ___अब मेतार्य सेठ के घर बढ़ने लगा। उसने अनेक कलाएं सीखीं और यौवन में प्रवेश किया। पूर्वभव के देवमित्र को अपनी प्रतिज्ञा (संकेत) का स्मरण हो आया। वह देवलोक से मेतार्य के पास आया और अपने संकेत का स्मरण कराते हुए उसे प्रतिबोध दिया, किन्तु मेतार्य ने उसकी बात नहीं मानी। अब उसका विवाह आठ धनी कन्याओं के साथ एक ही दिन होना निश्चित हुआ। वह पालकी में बैठ नगर में घूमने लगा। तब देव मेय के शरीर में प्रविष्ट हुआ। मेय जोर-जोर से रोते हुए कहने लगा-'हाय ! यदि मेरी पुत्री भी आज जीवित होती तो मैं भी उसके विवाह की तैयारी करता।' उसकी पत्नी ने यह सुना। वह आई और बीती हुई सारी घटना उसे सुनाई। यह सुनकर देव के प्रभाव से चांडाल मेय उठा और सीधा मेतार्य की शिविका के पास गया और मेताय को शिविका से नीचे गिराते हुए कहा-'अरे, तुम एक नीच जाति के होते हुए भी उच्च जाति की कन्याओं के साथ विवाह कर रहे हो।' उसने मेतार्य को एक गढ़े में ढकेल दिया। सारे नगर में मेतार्य की निन्दा होने लगी। आठ कन्याओं ने उसके साथ विवाह करने से इन्कार कर दिया। तदन्तर देव ने आकर मेतार्य को सारी बात बताई और प्रव्रज्या के लिए तैयार होने के लिए कहा। मेतार्य ने कहा- मैं तैयार हूं। किन्तु तुम मेरे अवर्णवाद को धो डालो। मैं बारह वर्ष तक यहां रहकर फिर प्रव्रजित हो जाऊंगा।' देव ने पूछा-'अवर्णवाद को मिटाने के लिए मैं क्या कर सकता हूं?' मेतार्य ने कहा- मेरा विवाह राजकन्या के साथ करा दो। सारा अवर्णवाद मिट जायेगा।' देवता ने मेतार्य को एक बकरा दिया। वह प्रतिदिन रत्नमय मींगना करता था। मेतार्य ने उन रत्नों से एक थाल भर कर राजा के पास भेजा और राजकुमारी की मांग की। राजा ने उसकी मांग अस्वीकार कर दी। १. अभिधानराजेन्द्र, भाग ४, पृष्ठ १७५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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