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ठाणं (स्थान)
स्थान १० : टि०६
६. कांपिल्यपुर में राजा जितशत्र के रूप में।
इन सबको प्रतिबोध देने के लिए कुमारी ने एक उपाय किया ( देखें ७७५ का टिप्पण)। उन्हें अपने-अपने पूर्वभव की स्मारणा कराई। सभी राजाओं की जाति-स्मतिज्ञान उत्पन्न हुआ और वे सब मल्ली के साथ दीक्षित हो गए।
७. रोग के कारण ली जाने वाली प्रवज्या
एक बार इन्द्र ने चौथे चक्रवर्ती सनत्कुमार के रूप की प्रशंसा की। दो देवों ने इसे स्वीकार नहीं किया और वे परीक्षा करने के लिए ब्राह्मण के रूप में वहां आए। दोनों प्रासाद के अन्दर गए और सीधे राजा के पास पहुंच गए। राजा उस समय तैल-मर्दन कर रहा था । ब्राह्मण रूप देवों ने उसके अनावृत रूप को देखा और अत्यन्त आश्चर्य चकित हुए। वे एकटक उसको निहारने लगे। राजा ने पूछा-आप यहां क्यों आए हैं ? उन्होंने कहा-"तीनों लोक में आपके रूप की प्रशंसा हो रही है। उसे आंखों से देखने के लिए हम यहां आए हैं।" राजा गर्व से उन्मत्त होकर बोला- मेरा वास्तविक रूप आपको देखना हो तो आप राजसभा में आएं। मैं जब राजसभा में सजधज कर बैठता हूं तब मेरा रूप दर्शनीय होता है ।" दोनों सभा भवन में आने का वादा कर चले गए।
राजा शीघ्र ही अभ्यंजन संपन्न कर, शरीर के सभी अंगोपांगों का श्रृंगार कर सभा में गया और एक ऊंचे सिंहासन पर जा बैठा।
दोनों ब्राह्मण आए। राजा के रूप को देख खिन्न स्वर मे बोले-"अहो ! मनुष्यों का रूप, लावण्य और यौवन क्षणभंगुर होता है।"
राजा ने पूछा-यह आपने कैसे कहा ? उन्होंने सारी बात बताई।
राजा ने अपने विभूषित अंग-प्रत्यंगों का सूक्ष्मता से निरीक्षण किया और सोचा--मेरे यौवन का तेज इतने ही समय में क्षीण हो गया। संसार अनित्य है, शरीर असार है । रूप और यौवन का अभिमान करना मूर्खता है। भोगों का सेवन करना उन्माद है। परिग्रह पाश है, बंधन है। यह सोचकर वह अपने पुत्र को राज्य का भार सौंप आचार्य विरत के पास प्रवजित हो गया।
उपर्युक्त विवरण उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति (अध्ययन १८) के अनुसार है।
स्थानांगवत्तिकार ने रोग से ली जाने वाली प्रव्रज्या में 'सनत्कुमार' के दृष्टान्त की ओर संकेत किया है। किन्तु उत्तराध्ययन बृहद्वृत्तिगत विवरण में चक्रवर्ती सनत्कुमार के प्रव्रज्या से पूर्व, रोग उत्पन्न होने की बात का उल्लेख नहीं है। प्रव्रज्या के बाद प्रान्त और नीरस आहार करने के कारण उनके शरीर में सात व्याधियां उत्पन्न होती है—ऐसा उल्लेख अवश्य है।
परम्परा से भी यही सुना जाता रहा है कि उनके शरीर में रोग उत्पन्न हुए थे और उन रोगों की ओर ब्राह्मण वेषधारी देवों ने संकेत भी किया था। इस संकेत से प्रतिबुद्ध होकर चक्रवर्ती सनत्कुमार दीक्षित हो जाते हैं।
यह सारा कथानक-भेद है। ८. अनादर के कारण ली जाने वाली प्रव्रज्या
मगध जनपद में नंदि नाम का गांव था। वहां गौतम ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम धारणी था। एक बार वह गर्भवती हुई। गर्भ के छह मास बीते तब गौतम ब्राह्मण मर गया और धारणी भी एक पुत्र का प्रसव कर मर गई। ऐसी स्थिति में बालक का पालन उसका मामा करने लगा। उसने उसका नाम नंदीषेण रखा। जब बड़ा हुआ तब वह अपने मामा के यहां ही नौकर के रूप में रह गया।
गांव के लोग नंदिषेण के विषय में बातचीत करते और उसे बुरा-भला कहते। वे उसको अनादर की दृष्टि से देखने लगे। यह बात नंदिषेण को अखरने लगी। एक दिन उसके मामा ने कहा-वत्स ! लोगों की बातों पर ध्यान मत दे। मैं तुझे कंवारा नहीं रखूगा । यदि दूसरा कोई अपनी पुत्री नहीं देगा तो मैं अपनी पुत्री के साथ तेरा विवाह कराऊंगा। मेरे तीन पुत्रियां है।
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