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ठाणं (स्थान)
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स्थान १ : टि० २-३
२-अयुगपत् प्रवृत्ति-सब जीवों में एक साथ एक प्रवृत्ति का न होना। ३-निगुण का विपर्यय-सत्व, रजस् और तमस् का विपर्यय होना, सब जीवों में उनकी एकरूपता का न होना।
जैन आगमों में नानात्मवाद के समर्थन में जो तर्क दिये गए हैं उनमें से कुछ वे हैं, जिनकी तुलना सांख्यदर्शन के तर्कों से की जा सकती है ; और कुछ उनसे भिन्न हैं । जैन आगमों में प्रस्तुत तर्क वर्गीकृत रूप में पांच हैं
१-एक व्यक्ति के दुःख को दूसरा व्यक्ति अपने में संक्रान्त नहीं कर सकता। २-एक व्यक्ति के द्वारा कृत कर्म के फल का दूसरा व्यक्ति प्रतिसंवेदन-अनुभव नहीं कर सकता। ३- मनुष्य अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है-सब न एक साथ जन्म लेते हैं और न एक साथ मरते हैं। ४–परित्याग और स्वीकार प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना होता है। ५-क्रोध आदि का आवेग, संज्ञा, मनन, विज्ञान और वेदना प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी होती है।
इन व्यक्तिगत विशेषताओं को देखते हुए एक समष्टि आत्मा को स्वीकार करने में अनेक सैद्धान्तिक बाधाएं उपस्थित होती हैं।
वेदान्त के आचार्यों ने प्रत्यग्-आत्मा को अपारमार्थिक सिद्ध करने में जो तर्क दिये हैं, वे बहुत समाधानकारक नहीं हैं।
२-दण्ड (सू०३):
दण्ड दो प्रकार का होता है-द्रव्य दण्ड और भाव दण्ड । द्रव्य दण्ड-लाठी आदि मारक सामग्री। भाव दण्ड के तीन प्रकार हैं
१. मनोदण्ड-मन की दुष्प्रवृत्ति । २. वाक्-दण्ड-वचन की दुष्प्रवृत्ति।
३. काय-दण्ड-शरीर की दुष्प्रवृत्ति। सूत्रकृतांग सूत्र में क्रिया के १३ स्थान बतलाये गये हैं। वहां पांच स्थानों पर दण्ड शब्द का प्रयोग हुआ है-अर्थ दण्ड, अनर्थ दण्ड, हिंसा दण्ड, अकस्मात् दण्ड और दृष्टिविपर्यास दण्ड। यहां दण्ड शब्द हिंसा के अर्थ में प्रयुक्त है। विशेष जानकारी के लिए देखें उत्तराध्ययन, अ० ३१ श्लोक ४ के दण्ड शब्द का टिप्पण।
३-क्रिया (सू० ४) :
क्रिया का सामान्य अर्थ प्रवृत्ति है। आगम साहित्य में इसका अनेक अर्थों में प्रयोग हुआ है। संदर्भ के अनुसार क्रिया का प्रयोग सत्प्रवृत्ति और असत्प्रवृत्ति-दोनों के अर्थ में मिलता है। प्रथम आचारांग (११५) में चार प्रकार के वादों का उल्लेख है। उनमें एक क्रियावाद है। भगवान महावीर स्वयं क्रियावादी थे। दार्शनिक जगत् में यह एक प्रश्न था कि आत्मा अक्रिय है या सक्रिय ? कुछ दार्शनिक आत्मा को अक्रिय या निष्क्रिय मानते थे। भगवान् महावीर आत्मा को सक्रिय मानते थे।
इस विश्व में ऐसी कोई वस्तु नहीं हो सकती, जिसमें क्रियाकारित्व न हो। वस्तु की परिभाषा इसी आधार पर की गई है। वस्तु वही है ,जिसमें अर्थक्रिया की क्षमता है। जिसमें अर्थक्रिया की क्षमता नहीं है, वह अवस्तु है। यहां 'क्रिया' का प्रयोग वस्तु की अर्थक्रिया (स्वाभाविक क्रिया) के अर्थ में नहीं है, किन्तु वह विशेष प्रवृत्ति के अर्थ में है।
दूसरे स्थान (सू० २-३७) में क्रिया के वर्गीकृत प्रकार मिलते हैं।
१. सूत्रकृतांग, २।११५१:
अण्णस्स दुक्खं अण्णो णो परियाइयइ अण्णेण कतं अण्णो णो पडिसंवेदेइ, पत्तेयं जायर, पत्तेयं मरइ, पत्तेयं चयइ, पत्तेयं उववज्जइ, पत्तेयं झंझा, पत्तेयं सपणा, पत्तेयं मण्णा, पत्तेयं विष्ण, पत्तेयं वेदणा।
२. सूत्रकृतांग, रारा। ३. सूत्रकृतांग, ११।१३:
कुव्वं च कारयं चेव, सव्वं कुब्वं न विज्जइ। एवं अकारओ अप्पा, ते उ एवं पगम्भिया ।
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