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टिप्पणियाँ स्थान-१
१-आत्मा (सू० २): जैन पद्धति के अनुसार आगम-सूत्र का प्रतिपादन और उसकी व्याख्या नय दृष्टि के आधार पर की जाती है। प्रस्तुत सूत्र संग्रहनय की दृष्टि से लिखा गया है। जैन तत्त्ववाद के अनुसार आत्मा अनंत हैं। संग्रहनय अनंत का एकत्व में समाहार करता है। इसीलिए अनंत आत्माओं का एक आत्मा के रूप में प्रतिपादन किया गया है। अनुयोगद्वार (सू० ६०५) में तीन प्रकार की वक्तव्यता बतलाई गई है
१. स्वस मयवक्तव्यता-जैन दृष्टिकोण का प्रतिपादन। २. परसमयवक्तव्यता-जैनेतर दृष्टिकोण का प्रतिपादन।
३. स्वसमय-परसमयवक्तव्यता-जैन और जैनेतर दोनों दृष्टिकोणों का एक साथ प्रतिपादन। नंदी सूवगत स्थानांग के विवरण में बतलाया गया है। स्थानांग में स्वसमय की स्थापना, परसमय की स्थापना और स्वसमय-परसमय की स्थापना की जाती है। इसके आधार पर जाना जा सकता है कि स्थानांग में तीनों प्रकार की वक्तव्यताएं हैं।
___'एगे आया' यह सूत्र उभयवक्तव्यता का है। अनुयोगद्वारचूणि में इस सूत्र की जैन और वेदान्त दोनों दृष्टिकोणों से व्याख्या की गई है। जैन-दृष्टि के अनुसार उपयोग (चेतना का व्यापार) सब आत्मा का सदृश लक्षण है, अतः उपयोग (चेतना का व्यापार) की दृष्टि से आत्मा एक है । वेदान्त-दृष्टि के अनुसार आत्मा या ब्रह्म एक है।
इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में स्वसमय और परसमय दोनों स्थापित हैं।
जैन आगमों में आत्मा की एकता और अनेकता दोनों प्रतिपादित हैं। भगवान् महावीर की दृष्टि में उपनिषद् का एकात्मवाद और सांख्य का अनेकात्मवाद दोनों समन्वित हैं। उस समन्वय के मूल में दो नय हैं-संग्रह और व्यवहार। संग्रह अभेद-प्रधान और व्यवहार भेद-प्रधान नय है। संग्रहनय के अनुसार आत्मा एक है और व्यवहारनय के अनुसार आत्मा अनन्त हैं। आत्मा की इस एकानेकात्मकता का प्रतिपादन भगवान् महावीर के उत्तरकाल में भी होता रहा है। आचार्य अकलंक ने नाना ज्ञान-स्वभाव की दृष्टि से आत्मा की अनेकता और चैतन्य के एक स्वभाव की दृष्टि से उसकी एकता का प्रतिपादन कर उसके एकानेकात्मक स्वरूप का प्रतिपादन किया है। सांख्य-दर्शन के महान् आचार्य ईश्वर कृष्ण ने अनेकात्मवाद के समर्थन में तीन तत्त्व प्रस्तुत किये हैं
१-जन्म, मरण और करण (इंद्रिय) की विशेषता सब जीवों का एक साथ जन्म लेना, एक साथ मरना और एक
साथ इन्द्रियविकल होना दृष्ट नहीं है।
१. नंदीसून, ८३ :
ससमए ठाविज्जई, परसमए ठाविज्जई, ससमयपरसमएठाविज्जई। २. अनुयोगद्वारचूणि, पृ. ८६ : एवं उभयसमयवक्तव्यतास्वरूपमपीच्छति जधा ठाणांगे 'एगे आता' इत्यादि, परसमयव्यवस्थिता ब्रुवति
एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते प्रतिष्ठितः ।
एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ स्वसमयव्यवस्थिताः पुनः ब्रुवंति उपयोगादिकं सव्वजीवाण सरिसं लक्खणं अतो सवभिचारिपरसमयबत्तव्वया स्वरूपेण ण
घडति, श्वेताश्वरउपनिषद् (६।११) में एक आत्मा का निरूपण इस प्रकार हैएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः, साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।। ३. स्वरूपसंबोधन, श्लोक ६:
नाना ज्ञानस्वभावत्वात् एकोऽनेकोपि नैव सः ।।
चेतनकस्वभावत्वात्-एकानेकारमको भवेत् ।। ४. सांख्यकारिका, १८:
जन्ममरणकरणाना, प्रतिनियमात् अयुगपत् प्रवृत्तेश्च पुरुषबहुत्वं सिद्ध, गुण्यविपर्ययाच्चैव ।।
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