SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) स्थान १: टि०४-१६ ४-७-लोक, अलोक, धर्म, अधर्म (सू० ५-८): आकाश लोक और अलोक, इन दो भागों में विभक्त है। जिस आकाश में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-ये पांचों द्रव्य मिलते हैं, उसे लोक कहा जाता है और जहां केवल आकाश ही होता है, वह अलोक कहलाता है। लोक और अलोक की सीमा रेखा धर्म (धर्मास्तिकाय) और अधर्म (अधर्मास्तिकाय) के द्वारा होती है। धर्म का लक्षण गति और अधर्म का लक्षण स्थिति है'। जीव और पुद्गल की गति धर्म और स्थिति अधर्म के आलम्बन से होती है। ८-१३-बंध यावत् संवर (सू० ६-१४) : संख्यांकित छह सूत्रों (९-१४) में नव तत्त्वों में से परस्पर प्रतिपक्षी छह तत्त्वों का निर्देश किया गया है। बन्धन के द्वारा आत्मा के चैतन्य आदि गुण प्रतिबद्ध होते हैं । मोक्ष आत्मा की उस अवस्था का नाम है, जिसमें आत्मा के चैतन्य आदि गुण मुक्त हो जाते हैं, इसलिए बंध और मोक्ष में परस्पर प्रतिपक्षभाव है। पुण्य के द्वारा जीव को सुख की अनुभूति होती है और पाप के द्वारा उसे दुःख की अनुभूति होती है, इसलिए पुण्य और पाप में परस्पर प्रतिपक्षभाव है। आश्रव कर्म पुद्गलों को आकर्षित करता है और संवर उनका निरोध करता है, इसलिए आश्रव और संवर में परस्पर प्रतिपक्षभाव है। दूसरे स्थान (सू०१) में इनका प्रतिपक्षी युगल के रूप में उल्लेख मिलता है। १४-१५-वेदना, निर्जरा (सू० १५-१६) : __ प्रस्तुत स्थान में वेदना शब्द का दो स्थानों (१५वे सूत्र में और ३३३ सूत्र में) पर उल्लेख हुआ है। तेतीसवें सूत्र में वेदना का अर्थ अनुभूति है। यहां उसका अर्थ कर्मशास्त्रीय परिभाषा से संबद्ध है। निर्जरा नौ तत्त्वों में एक तत्त्व है। वेदना उसका पूर्वरूप है। पहले कर्म-पुद्गलों की वेदना होती है, फिर उनकी निर्जरा होती है। वेदना का अर्थ है स्वभाव से या उदीरणाकरण के द्वारा उदय क्षण में आए हुए कर्म-पुद्गलों का अनुभव करना। निर्जरा का अर्थ है अनुभूत कर्म-पुद्गलों का पृथक्करण और आत्मशोधन। १६-जीव (सू० १७): आत्मा और जीव पर्यायवाची शब्द हैं। भगवती सूत्र (२०१७) में जीव के तेईस नाम बतलाए गए हैं। उनमें पहला नाम जीव और दशवां नाम आत्मा है। सामान्य दृष्टि से ये पर्यायवाची शब्द हैं, किन्तु विशेष दृष्टि (समभिरूढनय की दृष्टि) से कोई भी शब्द दूसरे शब्द का पर्यायवाची नहीं होता। इस दृष्टि से आत्मा और जीव में अर्थ-भेद है। आत्मा का अर्थ हैअपने चैतन्य आदि गुणों और पर्यायों में सतत परिणमन करने वाला चेतनतत्त्व। जीव का अर्थ है---शरीर और आयुष्य को धारण करने वाला चेतनतत्त्व । एगे आया (११२) में आत्मा का निर्देश देह-मुक्त चेतनतत्त्व के अर्थ में और प्रस्तुत सूत्र में जीव का निर्देश देह-बद्ध चेतनतत्त्व के अर्थ में हआ प्रतीत होता है। १. स्थानांग, २११५२: विहे आगासे पण्णत्ते, तं जहा लोगागासे चेव, अलोगागासे चेव । २. (क) उत्तराध्ययन, २८१७: धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगो त्ति पन्नतो, जिणेहि वरदंसिहि ॥ (ख) उत्तराध्ययन, ३६।२: जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए ।। ३. उत्तराध्ययन, २८1९: गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्षणो। ४. भगवती, २०१७ जीवत्यिकायस्स गं भंते ! केवइया अभिवयणा पण्णता? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा-जीवेत्ति वा... आयाति बा। भगवती २।१५: जम्हा जीवे जीवेति जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवति तम्हा जोवेति बत्तव्वं सिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy