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________________ ठाणं (स्थान) २१ स्थान १ : टि० १७-२१ प्रस्तुत सूत्र में जीव के एकत्व का हेतु प्रत्येक शरीर बतलाया गया है। जैनतत्त्ववाद के अनुसार मुक्त और बद्धदोनों प्रकार के चेतनतत्त्व संख्या-परिमाण की दृष्टि से अनन्त हैं, किन्तु यहां जीव का एकत्व संख्या की दृष्टि से विवक्षित नहीं है। एक चेतन से दूसरे चेतन को व्यवच्छिन्न करने वाला शरीर है। यह एक जीव है-यह इकाई शरीर के द्वारा ही अभिज्ञात होती है। अतः इसी दृष्टि से जीव का एकत्व विवक्षित है। इसकी तुलना वेदान्त-सम्मत प्रत्यग् आत्मा से होती है। उसके अनुसार परमार्थदृष्टि से आत्मा एक है, जिसे विश्वग् आत्मा कहा जाता है और व्यवहार-दृष्टि से आत्मा अनेक हैं, जिन्हें प्रत्यग् आत्मा कहा जाता है। वेदान्त का दृष्टिकोण अद्वैतपरक है। अतः उसके आचार्य प्रत्यग आत्मा को मानते हुए भी आत्मा के नानात्व को स्वीकार नहीं करते। उनका सिद्धान्त है कि प्रत्यग् आत्माओं का अस्तित्व विश्वग् आत्मा से निष्पन्न होता है। जो वस्तु जिससे अस्तित्व (आत्म-लाभ) को प्राप्त करती है वह उससे भिन्न नहीं हो सकती, जैसे-मिट्टी से अस्तित्व पाने वाले घट आदि उससे भिन्न नहीं हो सकते' । इसी प्रकार समुद्र से अस्तित्व पाने वाले तरङ्ग आदि उससे भिन्न नहीं हो सकते। जैनदर्शन के अनुसार भी आत्मा एक और अनेक ये दोनों सम्मत हैं, किन्तु एक आत्मा से अनेक आत्माएं निष्पन्न होती हैं, यह जैनदर्शन को मान्य नहीं है। चैतन्य के सादृश्य की दृष्टि से आत्मा एक है और चैतन्य की विभिन्न स्वतंत्र इकाइयों और देह-बद्धता के कारण वे अनेक हैं। दोनों अभ्युपगम दूसरे और प्रस्तुत सूत्र (१७) से फलित होते हैं। १७-११-मन, वचन, कायव्यायाम (सू०१६-२१) : जीव की प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं—मन, वचन और काय। इन तीनों को एक शब्द में योग कहा जाता है। आगम साहित्य में इनमें से प्रत्येक के साथ भी योग शब्द का प्रयोग मिलता है। आगम-साहित्य में प्रायः काययोग शब्द का प्रयोग किया गया है। काय-व्यायाम शब्द का प्रयोग दो बार इसी स्थान (११२१,४३) में हुआ है। बौद्धसाहित्य में सम्यग व्यायाम शब्द का प्रयोग प्राप्त है। उस समय में सामान्यप्रवृत्ति के अर्थ में भी व्यायाम शब्द का प्रयोग किया जाता था, ऐसा उक्त उद्धरणों से प्रतीत होता है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में व्यायाम शब्द का प्रयोग काय की एक विशेष प्रवृत्ति के अर्थ में रूढ़ है। २०-२१-उत्पत्ति, विगति (सू० २२-२३) : जैन तत्त्ववाद के अनुसार विश्व की व्याख्या त्रिपदी के द्वारा की गई है। त्रिपदी के तीन अंग हैं-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य । उत्पाद और व्यय-ये दोनों परिवर्तन और ध्रौव्य वस्तु के स्थायित्व का सूचक है। इन दो सूत्रों में त्रिपदी के दो अंगों-उत्पाद और व्यय का निर्देश है-ऐसा अभयदेव सूरि का अभिमत है। उन्होंने 'वियती' पद की व्याख्या में एक विकल्प भी प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि 'विगती' पद की व्याख्या विकृति आदि भी की जा सकती है, किन्तु इससे पहले सूत्र में उत्पाद का उल्लेख है, उसी के आधार पर उसकी व्याख्या व्यय की गई हैं। १. कठोपनिषद्, ४।११ २. माण्डूक्यकारिकाभाष्य, ३५१७-१८ : अस्माकं अद्वतदृष्टिः। ३. बृहदारण्यकभाष्य, ३१५: यस्य च यस्मादात्मलाभो भवति, स तेन अविभक्तो दृष्टः, यथा घटादीनि मृदा। ४. शांकरभाष्य, ब्रह्मसूत्र, २।१।१३ : न च समुद्रात् उदकात्मनोऽनन्यत्वेपि तद्विकाराणां फेनतरंगादीनां इतरेतरभावापत्ति भवति । न च तेषां इतरेतरभावाना पत्तावपि समुद्रात्मनोऽन्यत्व भवति । ५. तत्वार्थसूत्र, ६१: कायवाङ्मनःकर्म योगः। ६. स्थानांग, ३६१३ : तिबिहे जोगे पण्णते, तं जहा मणजोगे वइजोगे कायजोगे। ७. दीघनिकाय, पृ० १६७ । ८. चरक, सूत्रस्थान, प्र०७, श्लोक ३१: लाघवं कर्मसामयं, स्थैयं क्लेशसहिष्णुता। दोषक्षयोग्निवृद्धिश्च, व्यायामादुपजायते ॥ १. स्थानांगवृत्ति, पत्र १९: 'उप्प' त्ति प्राकृतत्वादुत्पादः, स चैक एकसमये एकपर्यायापेक्षया, नहि तस्य युगपदुत्पादव्ययादिरस्ति, अनपेक्षितत द्विशेषकपदार्थतया वैकोऽसाविति ।। 'विषई' त्ति विगतिविगमः, सा चैकोत्पादवदिति विकृतिविगतिरित्यादिव्याख्यान्तरमप्युचितमायोज्यम्, अस्माभिस्तु उत्पादसूत्रानुगुण्यतो व्याख्यातमिति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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