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________________ ठाणं (स्थान) २२ स्थान १ : टि० २२-३० बाईसवें सूत्र में 'उप्पा' पद है। अभयदेव सूरि ने प्राकृत भाषा का विशेष प्रयोग मानकर उसका अर्थ उत्पाद किया है । इसका अर्थ उत्पाद किया इसीलिए उन्होंने 'विगती' पद का अर्थ व्यय किया । 'उप्पा' एक स्वतन्त्र शब्द है । तब उसका उत्पाद रूप मानकर उसकी व्याख्या करने का अर्थ समझ में नहीं आता। 'उप्पा' शब्द 'ओप्पा' का रूपान्तर प्रतीत होता है । ह्रस्वीकरण होने पर 'ओप्पा' का 'उप्प' बना है। 'ओप्पा' का अर्थ है शाण आदि पर मणि आदि का घर्षण करना' । इस अर्थ के संदर्भ में 'उप्पा' का अर्थ परिकर्म होना चाहिए। इसका प्रतिपक्ष है विकृति । विकृति की संभावना अभयदेव सूरि ने भी प्रकट की है। किन्तु पांचवें स्थान के दो सूत्रों का अवलोकन करने पर यहां 'उप्पा' का अर्थ उत्पाद और 'विगति' का अर्थ व्यय ही संगत लगता है । २२ - विशिष्ट चित्तवृत्ति (सू० २४ ) : अभयदेव सूरि ने 'वियच्चा' शब्द का अर्थ मृत शरीर किया है। 'वि' का अर्थ विगत और 'अच्चा' का अर्थ शरीरविगताच अर्थात् मृतशरीर । इसका दूसरा संस्कृत रूप 'विवर्चा' मानकर दो अर्थ किए हैं-- विशिष्ट उपपत्ति की पद्धति और विशिष्टभूषा' । अर्चा का एक अर्थ चित्तवृत्ति (लेश्या) भी है । विगताच अथवा मृत जीव की अर्चा- यह अर्थ सहज प्राप्त नहीं है। विशिष्ट चित्तवृत्ति - यह अर्थ सहज प्राप्त है। इसलिए हमने यही अर्थ मान्य किया है। २३- २६ - गति, आगति, च्यवन, उपपात (सू० २५-२८ ) : गति, आगति, च्यवन और उपपात - यहां ये चारों शब्द पारिभाषिक हैं। गति - जीव का वर्तमान भव से आगामी भव में जाना । आगति - जीव का पूर्वभव से वर्तमान भव में आना । च्यवन-ऊपर से गिरकर नीचे आना । ज्योतिष्क और वैमानिक देव आयुष्य पूर्ण कर ऊपर से नीचे आकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनका मरण च्यवन कहलाता है । उपपात - देव और नारकों का जन्म उपपात कहलाता है'। २७-३० तर्क, संज्ञा, मनन, विद्वत्ता ( सू० २६-३२) : इन चार सूत्रों (२६-३२) में ज्ञान के विविध पर्यायों का निरूपण किया गया है— तर्क - ईहा से उत्तरवर्ती और अवाय (निर्णय) से पूर्ववर्ती विमर्श को तर्क कहा जाता है, जैसे- यह सिर को खुजला रहा है, इसलिए यह पुरुष होना चाहिए। यह तर्क की आगमिक व्याख्या है'। तर्क का एक अर्थ न्यायशास्त्रीय भी है। परोक्ष प्रमाण के पांच प्रकारों में तीसरा प्रकार तर्क है। इसका अर्थ है— उपलब्धि और अनुपलब्धि से उत्पन्न होने वाला व्याप्तिज्ञान तर्क कहलाता है'। १. देशीनाममाला १।१४८ : एलबिलो घणिओसहा अधम्मरोरप्पिएस एक्कमु हो । घोली कुलपरिपाडी ओज्झमचोक्खम्मि विमलणे ओप्पा ॥ टि० ओप्पा शाणादिना मण्यादेर्मार्जनम् ॥ २. स्थानांग, ५।२१५, २१६ । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १६: वियच्च ति विगतेः प्रागुक्तत्वादिह विगतस्य विगमवतो जं वस्य मृतस्येत्यर्थः अर्चा-शरीरं विगताच, प्राकृतत्वादिति, विवर्चा वा - विशिष्टोपपत्तिपद्धति विशिष्टभूषा वा । Jain Education International ४. सूत्रकृतांग, १/१५/१६ वृत्ति, पत्र २६७ : अर्चा- लेश्यान्तःकरणपरिणतिः । ५. स्थानांग, २।२५० । ६. स्थानांगवृत्ति पत्र १६: तर्कणं तक्कों – विमर्शः अवायात् पूर्वा इहाया उत्तरा प्राय: शिरः कण्डूयनादय पुरुषधर्म्मा इह घटन्त इति सम्प्रत्ययरूपा । ७. प्रमाणनयतत्वालोकालंकार, ३०७ : उपलम्भानुपलम्भसंभवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसंबन्धाद्यालम्बनं इदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याकारं संवेदनमूहापरनामा तर्कः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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