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________________ ठाणं (स्थान) २३ स्थान १ : टि०३१-३३ संज्ञा-इसके दो अर्थ होते हैं-प्रत्यभिज्ञान और अनुभति । नंदीसूत्र में मति (आभिनिबोधिक) ज्ञान का एक नाम संज्ञा निर्दिष्ट है। उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इन्हें एकार्थक माना है । मलय गिरि तथा अभयदेव सूरि दोनों ने संज्ञा का अर्थ व्यञ्जनावग्रह के बाद होनेवाली एक प्रकार की मति किया है । अभयदेव सूरि ने इसका दूसरा अर्थ अनुभूति भी किया है । इस अर्थ में प्रयुक्त संज्ञा के दस प्रकार दसवें स्थान में बतलाए गए हैं। किन्तु यहां तर्क, मनन और विज्ञान के साथ प्रयुक्त तथा नंदी में मतिज्ञान के एक प्रकार के रूप में निर्दिष्ट होने के कारण संज्ञा का अर्थ मतिज्ञान का एक प्रकार - प्रत्यभिज्ञान ही होना चाहिए। प्रत्यभिज्ञान का अर्थ उत्तरवर्ती न्यायग्रन्थों में इस प्रकार किया गया है मनन-वस्तु के सूक्ष्म धर्मों का पर्यालोचन करनेवाली बुद्धि आलोचना या अभ्युपगम । विज्ञता या विज्ञान-अभयदेव सूरि ने 'विन्नु' शब्द का अर्थ विद्वान् या विज्ञ किया है, और वैकल्पिक रूप में विद्वता या विज्ञता किया है । श्रुत-निश्रित मतिज्ञान के चार प्रकार हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अवाय का अर्थ हैविमर्श के बाद होने वाला निश्चय । उसके पांच पर्यायवाची नाम हैं। उनमें पांचवां नाम विज्ञान है । आचार्य मलयगिरि के अनुसार जो ज्ञान निश्चय के बाद होनेवाली धारणा को तीव्रतर बनाने में निमित्त बनता है, वह विज्ञान है। प्रस्तुत विषय में 'विन्नु' शब्द का यही अर्थ उपयुक्त प्रतीत होता है। स्थानांग के तीसरे स्थान में ज्ञान के पश्चात् विज्ञान का उल्लेख मिलता है। वहां अभयदेव सूरि ने विज्ञान का अर्थ हेयोपादेय का विनिश्चय किया है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि विज्ञान का अर्थ निश्चयात्मक ज्ञान है। ३१–वेदना (सू० ३३) : वेदना-प्रस्तुत स्थान में वेदना शब्द का दो स्थानों पर उल्लेख है एक पन्द्रहवें सूत्र में और दूसरा तेतीसवें सूत्र में । पन्द्रहवें सूत्र में वेदना का प्रयोग कर्म का अनुभव करने के अर्थ में हुआ है, और यहां उसका प्रयोग पीड़ा अथवा सामान्य अनुभूति के अर्थ में हुआ है। ३२-३३-छेदन, भेदन (सू० ३४-३५): छेदन-भेदन-छेदन का सामान्य अर्थ है टुकड़े करना और भेदन का सामान्य अर्थ है विदारण करना। कर्मशास्त्रीय परिभाषा के अनुसार छेदन का अर्थ है-कर्मों की स्थिति का घात करना-उदीरणा के द्वारा कर्मों की दीर्घ स्थिति को कम करना। भेदन का अर्थ है-कर्मों के रस का घात करना-उदीरणा के द्वारा कर्मों के तीव्र विपाक को मंद करना। १. नंदी, सूत्र ५४, गा०६ : ईहाअपोहवोमंसा, मम्गणा य गवेसणा । सण्णा सई मई पण्णा, सत्वं आभिणिबोहियं ।। २. तत्त्वार्थसूत्र, १११३ मति स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम् । ३. क-नंदीवृत्ति, पन १८७ : संज्ञान संज्ञा व्यंजनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थः । ख-स्थानांगवृत्ति, पन्न १६ : संज्ञानं संज्ञा व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मति विशेषः । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४७ : आहारभयायपाधिका वा चेतना संज्ञा । ५. स्थानांग, १०1१०५। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र १९: एगा विन्नु ति विद्वान् विज्ञो वा तुल्यबोधत्वादेक इति, स्त्रीलिंगत्वं प्राकृतत्वात् च उत्पाद (स्य) उप्पावत्, लुप्त भावप्रत्ययत्वाद्वा एका विद्वत्ता विज्ञता वेत्यर्थः । ७. नंदी, सून ३६ । ८. नंदी, सूत्र ४७ । ६. नंदीवृत्ति, पत्र १७६ : विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानं-क्षयोपशमविशेषादेवावधारितार्थ विषय एव तीनतरघारणाहेतुर्बोधविशेषः । १०. स्थानांग, ३.४१८। ११. स्थानांगवृत्ति, पत्र १४६ : विज्ञानम् --अर्थादीनां हेयोपादेयत्वविनिश्चयः । १२. देखें १४, १५ का टिप्पण १३. स्थानांगवत्ति, पत्र १९: प्राग्वेदना सामान्यकर्मानुभवलक्षणोक्ता इह तु पीडालक्षणव । १४. स्थानांगवृत्ति, पन १६ : छेदनं कर्मण. स्थितिपातः, भेदनं तु रसधात इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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