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ठाणं (स्थान)
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स्थान १: टि० ३४-३६
३४-अन्तिम शरीरी (सू० ३६) :
प्रत्येक प्राणी के दो प्रकार के शरीर होते हैं-स्थल और सूक्ष्म । मृत्यु के समय स्थूलशरीर छूट जाता है, किन्तु सूक्ष्मशरीर नहीं छूटता। जब तक सूक्ष्मशरीर रहता है, तब तक जन्म और मरण का चक्र चलता रहता है। सूक्ष्मशरीर से छुटकारा विशिष्ट साधना से मिलता है। जिस व्यक्ति का सूक्ष्मशरीर विलीन हो जाता है, वह अन्तिमशरीरी होता है। स्थूलशरीर की प्राप्ति का निमित्त सूक्ष्मशरीर बनता है। उसके विलीन हो जाने पर शरीर प्राप्त नहीं होता, इसीलिए वह अन्तिमशरीरी कहलाता है । उसका मरण भी अन्तिम होने के कारण एक होता है। वह फिर जन्म धारण भी नहीं करता इसीलिए उसका मरण भी नहीं होता।
३५-संशुद्ध यथाभूत (सू० ३७) :
प्रस्तुत सूत्र में एकत्व का हेतु संख्या नहीं, किन्तु निर्लेपता या सहाय-निरपेक्षता है। जो व्यक्ति संशुद्ध होता हैजिसका चरित्र दोष-मुक्त होता है, जो यथाभूत-शक्ति सम्पन्न होता है और जो पात्र-अतिशायी ज्ञान आदि गुणों का आथयी होता है, वह अकेला अर्थात् निर्लिप्त या सहाय-निरपेक्ष होता है।
३६-एकभूत (सू० ३८):
दुःख जीवों के साथ अग्नि और लोह की भांति लोलीभूत या अन्योन्य प्रविष्ट होता है, इसलिए उसे एक भूत कहा है । जैन सांख्यदर्शन की भांति दुःख को बाह्य नहीं मानता।
३७-३८–प्रतिमा (सू० ३९-४०) :
प्रतिमा शब्द के अनेक अर्थ होते हैं१. तपस्या का विशेष मानदण्ड । २. साधना का विशेष नियम । ३. कायोत्सर्ग। ४. मूर्ति। ५. प्रतिबिंब।
यहां उक्त अर्थों में से प्रतिबिंब का अर्थ ही अधिक संगत प्रतीत होता है। अधर्मप्रतिमा अर्थात् मन पर होनेवाला अधर्म का प्रतिबिंब । यही आत्मा के लिए क्लेश का हेतु बनता है। धर्मप्रतिमा अर्थात् मन पर होनेवाला धर्म का प्रतिबिंब । यही आत्मा के लिए शुद्धि का हेतु बनता है।
३६--एक मन (सू० ४१) :
एक क्षण में मानसिक ज्ञान एक ही होता है--यह सिद्धान्त जैन-दर्शन को आगम-काल से ही मान्य रहा है। नैयायिकवैशेषिक-दर्शन में भी यह सिद्धान्त सम्मत है। इस सिद्धान्त के समर्थन में दोनों के हेतु भी समान हैं । जैन-दर्शन के अनुसार एक क्षण में दो उपयोग (ज्ञान-व्यापार) एक साथ नहीं होते, इसलिए एक क्षण में मानसिक ज्ञान एक ही होता है। एक आदमी नदी में खड़ा है, नीचे से उसके पैरों को जल की ठंडक का संवेदन हो रहा है और ऊपर से सिर को धूप की उष्णता का संवेदन हो रहा है। इस प्रकार एक व्यक्ति एक ही क्षण में शीत और उष्ण दोनों स्पर्शों का संवेदन करता है, किन्तु वस्तुतः यह सही नहीं है । क्षण और मन की सूक्ष्मता के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक ही क्षण में शीत और उष्ण दोनों स्पर्शों का संवेदन करता है, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। जिस क्षण में शीत-स्पर्श का अनुभव होता है, उस क्षण में मन शीत-स्पर्श की अनुभूति में ही व्याप्त रहता है, इसलिए उसे उष्ण-स्पर्श की अनुभूति नहीं हो सकती और जिस क्षण में वह उष्ण-स्पर्श की अनुभूति में व्याप्त रहता है, उस क्षण उसे शीत-स्पर्श की अनुभूति नहीं हो सकती। १. स्थानांगवृत्ति, पत्न २० : एकत्वं च तस्यकोपयोगत्वात् जीवानाम् ।
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