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ठाणं (स्थान)
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स्थान १ : टि० ४०-४१
एक क्षण में दो ज्ञानों और दो अनुभूतियों के न होने का कारण मन की शक्ति का सीमित विकास होना है'। नयायिक - वैशेषिक दर्शन के अनुसार एक क्षण में एक ही ज्ञान और एक ही क्रिया होती है, इसलिए मन एक है' । न्याय दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम तथा वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद मन की एकता के सिद्धान्त के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मन अणु है । यदि मन अणु नहीं होता, तो प्रतिक्षण मनुष्य को अनेक ज्ञान होते । वह अणु है, इसलिए वह एक क्षण में ही इन्द्रिय के साथ संयोग स्थापित कर सकता है। इन्द्रिय के साथ उसका संयोग हुए बिना ज्ञान होता नहीं, इसलिए वह एक क्षण में एक ही ज्ञान कर सकता है ।
४० - एक वचन ( सू० ४२ ) :
मानसिक ज्ञान की भांति एक क्षण में एक ही वचन होता है। प्रस्तुत सूत्र के छठे स्थान में छह असम्भव क्रियाएं बतलाई गई हैं । उनमें तीसरी काल की क्रिया यह है कि एक क्षण में कोई भी प्राणी दो भाषाएं नहीं बोल सकता" । जैन न्याय में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग इसी सिद्धान्त के आधार पर किया गया। वस्तु अनंतधर्मात्मक होती है। एक क्षण में उसके एक धर्म का ही प्रतिपादन किया जा सकता है। शेष अनंतधर्म अप्रतिपादित रहते हैं । इसका तात्पर्य यह होता है कि मनुष्य वस्तु के एक पर्याय का प्रतिपादन कर सकता है, किन्तु समग्र वस्तु का प्रतिपादन नहीं कर सकता। इस समस्या को सुलझाने के लिए 'स्यात्' शब्द का सहारा लिया गया।
' स्यात् ' शब्द इस बात का सूचक है कि प्रतिपाद्यमान धर्म को मुख्यता देकर और शेष धर्मों की उपेक्षा करें, तभी तुवाच्य होती है । एक साथ अनेक धर्मों की अपेक्षा से वस्तु अव्यक्तव्य हो जाती है । सप्तभंगी का चतुर्थ भंग इसी आधार पर बनता है ।
४१ – शरीर ( सू० ४३ ) :
शरीर पौद्गलिक है । वह जीव की शक्ति के योग से क्रिया करता है। उसके पांच प्रकार हैं
१. औदारिक — अस्थिचर्ममय शरीर ।
२. वैक्रिय - विविध रूप निर्माण में समर्थ शरीर ।
३. आहारक - योगशक्ति से प्राप्त शरीर ।
४. तेजस - तेजोमय शरीर ।
५. कार्मण -- कर्ममय शरीर ।
इन्हें संचालित करनेवाली जीव की शक्ति को काययोग कहा जाता है। एक क्षण में काययोग एक ही होता है । उपयोग (ज्ञान का व्यापार) एक क्षण में दो नहीं हो सकता, किन्तु काया की प्रवृत्ति एक क्षण में दो हो सकती हैं। यहां उसका निषेध नहीं है। यहां एक क्षण में दो काययोगों का निषेध है । क्योंकि जिस जीव-शक्ति से औदारिकशरीर का संचालन होता है, उसी से वैक्रियशरीर का संचालन नहीं हो सकता। उसके लिए कुछ विशिष्ट शक्ति की अपेक्षा होती है । इस दृष्टि से जब एक काययोग सक्रिय होता है, तब दूसरा काययोग क्रियाशील नहीं हो सकता ।
१. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, ४/४६ :
तद् द्विभेदमपि प्रमाणमात्मीयप्रतिबन्ध कापगम विशेषस्वभाव
रूप सामर्थ्यतः प्रतिनियतमर्थमवद्योतयति ।
२. (क) न्यायदर्शन, ३।२।६०-६२ :
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ज्ञानायोगपद्यादेकं मनः । न युगपदनेकक्रियोपलब्धेः । अलातचक्रदर्शनवत्तदुपलब्धि राशुसञ्चारात् ।
(ख) वैशेषिकदर्शन, ३।२।३:
प्रयत्नायोगपद्यान ज्ञानायोगपद्याच्चकम् ।
३. (क) न्यायदर्शन, ३१२६२ :
तदभावादणु मनः । (ख) यथोक्तहेतुत्वाच्चाणु । ४. न्यायदर्शन, ३२२२६ : क्रमवृत्तित्वादयुगपद् ग्रहणम् । ५. स्थानांग, ६।५ :
एसमए णं वा दो भासाओ भसित्तए ।
६. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, ४।१६ :
स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः ।
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