________________
ठाणं (स्थान)
४२ - ( सू० ४४ ) :
भगवान् महावीर पुरुषार्थवादी थे । वे उत्थान आदि को कार्य सिद्धि के लिए आवश्यक मानते थे। आजीवक सम्प्रदाय के आचार्य नियतिवादी थे । वे कार्य सिद्धि के लिए उत्थान आदि को आवश्यक नहीं मानते थे और अपने अनुयायीगण को यही पाठ पढ़ाते थे। भगवान् महावीर ने सद्दालपुत्र से पूछा -- ये तुम्हारे बर्तन उत्थान आदि से बने हैं या अनुत्थान आदि से ?
२६
इसके उत्तर में सद्दालपुत्र ने कहा- भंते ! ये बर्तन अनुत्थान आदि से बने हैं। सब कुछ नियत है, इसलिए उत्थान आदि का कोई प्रयोजन नहीं है'। इस पर भगवान ने कहा – सद्दालपुत्र ! कोई व्यक्ति तुम्हारे बर्तन को फोड़ डालता है, उसके साथ तुम कैसा व्यवहार करते हो ?
सद्दालपुत्र - भंते ! मैं उसे दण्डित करता हूं ।
भगवान् -- सद्दालपुत्र ! सब कुछ नियत है, उत्थान आदि का कोई अर्थ नहीं है, तब तुम उस व्यक्ति को किसलिए दण्डित करते हो? ?
इस संवाद से भगवान् का पुरुषार्थवादी दृष्टिकोण स्पष्ट होता है। उत्थान आदि का शब्दार्थ इस प्रकार है
उत्थान - उठना, चेष्टा करना ।
कर्म - भ्रमण आदि की क्रिया ।
बल- शरीर-सामर्थ्यं ।
वीर्य - जीव की शक्ति, आन्तरिक सामर्थ्यं ।
पुरुषकार - पौरुष आत्मोत्कर्ष ।
पराक्रम-कार्य-निष्पत्ति में सक्षम प्रयत्न ।
स्थान १ : टि० ४२-४८
४३-४५ - ज्ञान, दर्शन, चरित्र ( सू० ४५-४७ ) :
ज्ञान, दर्शन और चरित्र - ये तीनों मोक्ष मार्ग हैं। उमास्वति ने इसी आधार पर 'सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग (तत्त्वार्थ सूत्र १1१ ) यह प्रसिद्ध सूत्र लिखा था। उत्तराध्ययन (२८/२ ) में तप को भी मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है। यहां उसका उल्लेख नहीं है। वह वस्तुतः चरित्र का ही एक प्रकार है, इसलिए वह यहां विवक्षित नहीं है।
४६-४८- समय, प्रदेश, परमाणु ( सू० ४८-५० ) :
विश्व में दो प्रकार के पदार्थ होते हैं--सूक्ष्म और स्थूल । सापेक्ष दृष्टि से अनेक पदार्थं सूक्ष्म और स्थूल दोनों रूपों में होते हैं, किन्तु चरमसूक्ष्म और चरमस्थूल निरपेक्ष दृष्टि से होते हैं। निर्दिष्ट तीन सूत्रों में चरमसूक्ष्म का निरूपण किया गया है । काल का चरमसूक्ष्म भाग समय कहलाता है। यह काल का अन्तिम खण्ड होता है। इसे फिर खण्डित नहीं किया जा सकता । वस्तु का चरमसूक्ष्म भाग प्रदेश कहलाता है ।
यह वस्तु का अविभक्त अंतिम खंड होता है। पुद्गल द्रव्य का चरमसूक्ष्म भाग परमाणु कहलाता है। इसे विभक्त नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिकों ने परमाणु का विखण्डन किया है, किन्तु जैन- दृष्टि से उसका विखण्डन नहीं होता । परमाणु दो प्रकार के होते हैं - निश्चयपरमाणु और व्यवहारपरमाणु है ।
१. उवासगदसाओ, ७।२३, २४
२. उवासगदसाम्रो, ७।२५, २६ ।
३. अनुयोगद्वार ३६६ : से किं तं परमाणू ?
Jain Education International
व्यवहारपरमाणु भी बहुत सूक्ष्म होता है। वह साधारणतया चक्षुगम्य नहीं होता। उसका विखण्डन हो सकता है, किन्तु निश्चयपरमाणु विखण्डित नहीं हो सकता । भगवती में चार प्रकार के परमाणु बतलाए गए हैं- द्रव्यपरमाणु, क्षेत्रपरमाणु, कालपरमाणु और भावपरमाणु। इसमें समय को कालपरमाणु कहा गया है।
परमाणु दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - सुहुमे य वावहारिए य ४. भगवती, २०१४० |
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org