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ठाणं (स्थान)
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स्थान १ : टि० ४६-८७
तीसरे स्थान में समय, प्रदेश और परमाणु को अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य, अग्राह्य, अनर्ध, अमध्य, अप्रदेश और अविभाज्य बतलाया गया है।
४६-८४-शब्द,.. रूक्ष (सू० ५५-६०) :
निर्दिष्ट सूत्रों (५५-६०) में पुद्गल के लक्षण, कार्य, संस्थान और पर्याय का प्रतिपादन किया गया है। रूप, गंध,रस और स्पर्श-ये चार पुद्गल के लक्षण हैं । शब्द पुद्गल का कार्य है। जैन दर्शन वैशेषिक दशन की भांति शब्द को आकाश का गुण व नित्य नहीं मानता। उसके अनुसार पौद्गलिक होने के कारण वह अनित्य है। दूसरे स्थान में शब्द की उत्पत्ति के दो कारण बतलाए गए हैं-संघात और भेद । जब पुद्गल संहति को प्राप्त होते हैं, तब शब्द की उत्पत्ति होती है, जैसेघंटा का शब्द । जब पुद्गल भेद को प्राप्त होते हैं, तब शब्द की उत्पत्ति होती है, जैसे-बांस के फटने का शब्द।
दीर्घ, ह्रस्व, वृत्त (गेंद की तरह गोल), त्रिकोण, चतुष्कोण, विस्तीर्ण और परिमंडल (वलयाकार)-ये पुद्गल के संस्थान हैं। कृष्ण, नील आदि पुद्गल के लक्षणों का विस्तार है।
८५-मायामृषा (सू० १०७) :
मायामृषा-मायायुक्त असत्य को मायामृषा कहा जाता है। कुछ व्याख्याकारों ने इसका अर्थ वेश बदलकर लोगों को ठगना किया है।
८६-८७–अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी (सू० १२७-१३४) :
काल अनादि अनन्त है। इस दृष्टि से वह निविभाग है, किन्तु व्यावहारिक उपयोगिता की दृष्टि से उसके अनेक वर्गीकरण किए गए हैं । उसका एक वर्गीकरण काल-चक्र है। उसके दो विभाग हैं-अवसर्पिणी और उत्सपिणी। इन दोनों के रथ-चक्र के आरों की भांति छह-छह आरे हैं । अवसर्पिणी के छह आरे ये हैं
१. सुषम-सुषमा--एकान्त सुखमय । २. सुषमा--सुखमय । ३. सुषम-दुषमा-सुख-दुःखमय । ४. दुषम-सुषमा-दुःख-सुखमय । ५. दुषमा-दुःखमय। ६. दुषम-दुषमा-एकान्त दुःखमय ।
उत्सर्पिणी के छह आरे ये हैं१. दुषम दुषमा-एकान्त दुःखमय । २. दुषमा-दुःखमय । ३. दुषम-सुषमा-दुःख-सुखमय। ४. सुषम-दुषमा-सुख-दुःखमय । ५. सुषमा-सुखमय । ६. सुषम-सुषमा-एकान्त सुखमय ।
अवसर्पिणी में वर्ण, गन्ध आदि गुणों की क्रमशः हानि और उत्सर्पिणी में उनकी क्रमशः वृद्धि होती है।
१. स्थानांग, ३ ॥३२८-३३५ । २. उत्तराध्ययन, २८।१२। ३. स्थानांग, २।२२० ।
४. स्थानांगवृत्ति, पत्न २४:
मायया वा सह मृषा मायामृषा प्राकृतत्वान्मायामोसं, दोषद्वययोगः, इदं च मानमृषादिसंयोगदोषोपलक्षणं, वेषान्तरकरणेन लोकप्रतारणमित्यन्ये ।
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