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________________ ठाणं (स्थान) २८ स्थान १ : टि०८८-६८ ८८-नारकीय (सू० १४१) : (११२१३) में चौबीस दंडकों का उल्लेख है। दण्डक का अर्थ है-समान जाति वाले जीवों का वर्गीकरण। संसार के सभी जीवों को चौबीस वर्गों में विभक्त किया गया है। यहां उन चौबीस वर्गों के नाम दिए गए हैं। ८६-६०-भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक (सू० १६५-१६६) : संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं१. भवसिद्धिक-जिसमें मुक्त होने की योग्यता हो। २. अभदसिद्धिक-जिसमें मुक्त होने की योग्यता न हो। भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक की भेद रेखा अनादि है। ६१-६२-कृष्ण-पाक्षिक, शुक्ल-पाक्षिक (सू० १८६-१८७) : मोक्ष की प्रक्रिया बहुत लम्बी है, उसमें आनेवाली बाधाओं को अनेक काल-चरणों में पार किया जाता है । कृष्ण और शुक्ल-ये दोनों पक्ष उसी शृंखला के काल-चरण हैं । जब तक जिस जीव की मोक्ष की अवधि निश्चित नहीं होती, तब तक वह कृष्ण पक्ष की कोटि में होता है और उस अवधि की निश्चितता होने पर जीव शुक्ल पक्ष की कोटि में आ जाता है। इसी कालावधि के आधार पर प्रस्तुत दोनों पक्षों की व्याख्या की गई है। जो जीव अपार्ध पुद्गलपरावर्त तक संसार में रहकर मुक्त होता है, वह शुक्ल-पाक्षिक और इससे अधिक अवधि तक संसार में रहनेवाला कृष्ण-पाक्षिक कहलाता है। यद्यपि अपार्ध पुद्गल परावर्त बहुत लम्बा काल है, फिर भी निश्चितता के कारण उसका कम महत्त्व नहीं है। शुक्लपक्ष की स्थिति प्राप्त होने पर ही आध्यात्मिक विकास के द्वार खुलते हैं, इस दृष्टि से भी उसका बहुत महत्त्व है। ६३-६८-लेश्या (सू० १६१-१९६) : विचार और पुद्गल द्रव्य में गहरा सम्बन्ध है । जिस प्रकार के पुद्गल गृहीत होते हैं, उसी प्रकार की विचारधारा का निर्माण होता है। हर प्राणी के आस-पास पुद्गलों का एक वलय होता है। उनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं, और वे प्रशस्त एवं अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं। प्रशस्त वर्ण, गंध, रस और स्पर्शवाले पुद्गल प्रशस्त विचार उत्पन्न करते हैं तथा अप्रशस्त वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पुद्गल अप्रशस्त विचार उत्पन्न करते हैं। लेश्या को उत्पन्न करनेवाले पुद्गलों में गंध आदि के होने पर भी उनमें विशेषता वर्णों (रंगों) की होती है, ऐसा उनके नामकरण से प्रतीत होता है। लेश्याओं का नामकरण रंगों के आधार पर किया गया है। रंगों का हमारे जीवन तथा चिंतन पर बहुत बड़ा प्रभाव है। इस तथ्य को प्राचीन एवं आधुनिक सभी तत्त्वविदों और मानसशास्त्रियों ने मान्यता दी है। उक्त विवरण के संदर्भ में हम लेश्या को इस भाषा में बांध सकते हैं - विचारों को उत्पन्न करनेवाले पुद्गल लेश्या कहलाते हैं। उन पुद्गलों से उत्पन्न होनेवाले विचार भी लेश्या कहलाते हैं। हमारे शरीर का वर्ण तथा शरीर के आस-पास निर्मित होनेवाला पौद्गलिक आभा-वलय भी लेश्या कहलाता है। इस प्रकार अनेक अर्थ लेश्या शब्द के द्वारा अभिहित किए गए हैं। प्राचीन आचार्यों ने योग परिणाम को लेश्या कहा है। १. अनुयोगद्वार, २८८ : अणाइ-पारिणामिए–धम्मत्यिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवत्यिकाए पोग्गलत्यिकाए अद्धासमए लोए अलोए भवसिद्धिया अभवसिद्धिया। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र २६ : कृष्णपाक्षिकेतरयोर्लक्षणं"जेसिमबड्डो पोग्गलपरियट्टो सेसओ उ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु अहिए पुण किण्हपक्खीआ ।।". ३. स्थानांगवृत्ति, पत्न २६ : लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या, यदाह--"श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्यः" तथा कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य पात्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ।। इति, इयं च शरीरनामकर्मपरिणतिरूपा योगपरिणतिरूपत्वात्, योगस्य च शरीरनामकर्मपरिणति विशेषत्वात् यत उक्तं प्रज्ञापनावृत्तिकृता-'योगपरिणामो लेश्या' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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